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________________ 425 : १६-२५ ] १६. जोषसंबोधनपञ्चविंशतिः ११५ 424) तीवत्रासप्रदायिप्रभवमृतिजराश्बापववातपाते दुःखोोजप्रसन्चे भवगहनवने ऽनेकयोन्यविरौद्रे'। भ्राम्यन्न प्रापि नत्वं कथमपि शमतः कर्मणो दुष्कृतस्य नो धर्म करोषि स्थिरपरमषिया वञ्चितस्त्वं तवात्मन् ॥२४॥ 425) ज्ञानं 'तत्त्वप्रबोधो जिनवचन चिशेनं घतदोषं चारित्र पापमुक्तं त्रयमित्रमुदितं मुक्तिहेतुं प्रधत्स्व | मुवस्वा संसारहेतुत्रित यमपि पर निन्धयोषाचवा रेरे जीवात्मवैरि अमितगतिसुते घेत्तवेच्छास्ति पूते ॥ २५ ॥ ॥इति जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः ॥१६॥ संसारापातहेतुं मतिमतिदुरितं कार्यते ।। २३ ।। तीवत्रास-प्रदायिप्रभवमतिजराश्वापदवातपाते दुःखोर्वीजप्रपञ्च अनेक योन्यदिरोद्रे भवगहनवने भ्राम्पत् त्वं दुष्कृतस्य कर्मणः शमतः कथमपि नृत्वं प्रापि । हे आरमन्, स्थिरपरमधिया चेत् धर्म न करोपि तदा त्वं वञ्चितः ।। २४ ।। रे रे आत्मवैरिन् जीव, तक पते अमितगतिसुखे इच्छा अस्ति रेत् [तर्हि ] परम् अवद्य निन्दबोधादि संसारहेतुत्रितयपि मुक्त्वा ज्ञानं तत्वप्रबोधः जिनवचनरूचिः पूतदोषं वर्शनं, पापमुक्तं पारिवं [ मत् ] दं त्रयं मुक्तिहेतु उदितं तत् त्वं प्रयत्स्व ॥ २५ ।। इति जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः ॥ १६ ॥ जो संसाररूपी भीषण वन तीव्र दुखको देनेवाले जन्म, मरण और जरारूप श्वापदों ( हिंसक पशु विशेषों ) के समूहसे परिपूर्ण है, दुःखोंरूप वृक्षोंसे घिरा हुआ है, तथा अनेक पर्यायरूप पर्वतोंसे भयानक है, उसमें परिभ्रमण करते हुए तूने पाप कर्मके शान्त होनेसे जिस किसी प्रकार यह मनुष्यभव पाया है। अब यदि तू स्थिर निर्मल बुद्धिसे धर्मको नहीं करता है तो फिर ठगा जाने वाला है। अभिप्राय यह है कि प्राणीने संसारमें परिभ्रमण करते हुए अनादि कालसे अनेक दुःसह दुःखोंको सहा है। यदि पाप कर्मके उपशमसे उसे मनुष्य पर्याय प्राप्त हो जाती है तो संयमादि धारण करके उसे आत्महित सिद्ध करना चाहिये और यदि बैसा न किया तो फिर भी उन दुःसह दुःखोंको चिरकाल तक सहना पड़ेगा ॥ २४ ॥ हे अपने आपके शत्रुस्वरूप जीव ! यदि तुझे पवित्र मुक्ति सुखकी इच्छा है तो तू रत्नत्रयसे भिन्न जो निकृष्ट मिथ्यादर्शनादि तीन संसार परिभ्रमणके कारण हैं उनको छोड़ करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रलवयको धारण कर। इनमें जिनवचनके विषयमें-सर्वज्ञ देवके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वके विषयमें-रुचि रखना इसे निदोष सम्यग्दर्शन, वस्तु स्वरूपको यर्थार्थ जानना इसे सम्यग्ज्ञान और हिंसादि पापोंसे विरत हो जाना इसे सम्यकचारित्र कहते हैं। ये तीनों ही मोक्षके कारण कहे गये हैं ।। २५ ॥ इस प्रकार पच्चीस श्लोकोंमें जोव संबोधन किया ।। १६ ॥ हेतु स्त्रि। १स यो न्यविरौद्रे । २ स ज्ञानं ते चप', ज्ञानं ते ऽधप्रबोधे। ३ स वजनरुचि । ४ स हेतुस्त ५स निन्द्यवध्या' । ६ स "वद्यान्, "वं । ७ स बैरीन्न ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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