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________________ [ १७. दुर्जननिरूपणचतुर्विशतिः ] 426) पापं वर्षपते चिनोति कुमति कार्यङ्गानां मायति धर्म ध्वंसयते तनोति विपदं संपत्तिमुन्मति। मोति हन्ति विनीतिमात्र कुते कोपं पुनीते सम" किवा जनसंगतिनं कुरते मोकदय ध्वंसिनी ॥१॥ 427) न प्यानःशुभ मातुरोऽपि कुपितो नाशीविषः पन्नगो नारातिबलसत्वविकसितो मत्तः करोम्योन। तंबाक्लोलिन कर्तुमत्र नृपतिः कण्ठोरवो मोरपुरो पोषं बुर्जनसंगतिविसनुते तं देहिनां निग्विता ॥२॥ - 428) ध्यान पाक जंगसंगभयारका वरं सेवितं परमातोलतभीलवीचिनिचिनो वाषिर माहितः । विकोपारोत्तोलसशिखो वलिवर वाषित स्वैलोक्योबरवतियोषजनके नासाघुमध्ये स्थितम् ॥३॥ पत्रपतिमा दुर्जनसंगतिः पापं वर्षयते, कुमति विनोति, कीर्त्याना नश्यति, धर्म ध्वंसयते, विपदं तनोति, संपत्ति उन्मति, नीति इम्ति, विनीति कुरुते, असमं को धुनीते । किंवा म कुते ॥ १॥ बत्र निन्दिता दुर्जनसंगतिः बेहिनो यं दोषं बिसनुते, संयोपं कर्तुं न शुषयातुरः न्यानः न कुपितः आजीविषः पन्नगः, न बलसत्त्वबुद्धिकलितः राति: न च यत्तः करीन, म मृपतिः, न उपधुरः कण्ठीरवः शक्नोति ॥ २ ॥ ज्याघ्रव्यालभुजङ्गसंगभयकक्षं सेवितं वरम् । कस्पाम्पोद्गतमीमीधिनिषितः बाधिः गाहितः वरम् । विश्वप्लोषकरोखतौरवलशिक्षः वद्धिः आश्रितः बरम् । परं बलोस्यो दरवर्तिदोषजनके वसायुमध्ये स्थितं वरं न स्यात् ॥ ३॥ यः कोमलं सुखकरं वाक्यं जम्पति, अन्यथा कृत्यं करोति, दुष्टषीः यहाँ दुष्ट जनकी संगति पापको बढ़ाती है, दुविको संचित करती है, कीर्तिरूप स्वीको नष्ट करती है, धर्मका विध्वंस करती है, विपत्तिका विस्तार करती है, सम्पत्तिका नाश करती है, न्यायमार्गसे प्रष्ट करती है, अन्यायमें प्रवृत्त करती है, तथा असाधारण क्रोधको कम्पित करती है-बढ़ाती है। अथवा दोनों ही लोकोंको नष्ट करनेवाली वह दुर्जन संगति क्या नहीं करती है ? सब ही अनयोंको वह करती है ॥१॥ यहाँ निन्दित दुर्जनसति प्राणियोंके जिस दोषको ( अहितको) करती है उसको करनेके लिये न भूखसे पोड़ित व्याघ्र समर्थ है, न कोषको प्राप्त हुआ आशीविष सर्प समर्थ है, न बल वीर्य एवं बुद्धिसे सम्पन्न शत्रु समर्थ है, न उन्मत्त हामी समपं है, न राजा समय है, और न उद्धत सिंह भी समर्थ है ॥२॥ व्याघ्र दुष्ट हाथी और सपोक संयोगसे भयको उत्पन्न करनेवाले बनमें रहना अच्छा है, प्रलयकालोन वायुसे उठती हुई भयानक तरंगोंसे व्याप्त समुद्र में डूब जाना अच्छा है, और समस्त संसारको जलानेवालो ज्वालायुक्त अग्निको शरणमें जाना भी कहीं अच्छा है; परन्तु तीनों लोकके बीचमें रहनेवाले समस्त दोषोंके जनक दुर्जनोंके मध्यमें रहना अच्छा नहीं है ॥ ३ ॥ जो दुष्ट कोमल व प्रिय वचन बोलता है, परन्तु कार्य उसके विपरीत करता है, जो १स कीर्तिमनां । २ स बसति । ३.स मुज़्त । ४ स शर्म, समं । ५ स नये', 'द्वयं । ६ स सुधि । ७ स व्याध, व्याध 1 ८स काक्षं । ९ स जनकेनासाघ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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