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________________ सुभाषितसंदोहः [141 :७-१४141) करोति दोष न तमत्र केसरी न इन्दशूको न करी न भूमिपः । अतीव रष्टो न च शत्रुरुद्धतो यमुग्रमिथ्यारवरिपुः शरीरिणाम् ॥२४॥ 142) धातु धर्म दशधा तु पावन करोतु भिक्षाशनमस्तदूषणम् । तनोतु योगं धृतचित्तविस्तर तथापि मिथ्यात्वयुतो न मुच्यते ॥१५॥ 143) ददातु दानं बहुधा चतुर्विधं करोतु पूजामतिमक्तितोऽहता। दधातु शील तनुतामभोजनं तथापि मिथ्यात्ववशो न सिध्यति ॥१६॥ 144) अवै शास्त्राणि नरो विशेषतः करोतु चित्राणि तपालि भावतः । अतत्त्वसंसक्तमनास्तथापि नो विमुक्तिसौख्यं गतषाधमैथुते ॥ १७॥ 145) विचित्रवर्णाञ्चितचित्रमुत्तम पधा गताक्षो न जनो विलोकते । प्रदयमान न तथा प्रपंचते कुडष्ट्रिजीवो जिननाथशासनम् ॥ १८ ॥ 146) अभव्यजीवो वचनं पठन्नपि जिनस्य मिथ्यात्वविषं न मुञ्चति । यथा विषं रौद्रविषो ऽति पन्नगः सशर्करं चारु पयः पिबन्नेपि ॥ १९ ।। उग्रमिथ्यात्वरिपुः शरीरिणी यं दोषं करोति, अत्र तं केसरी न करोति, न दन्दशकः (सर्पः), न करी, न भूमिपः, न ब अतीय रुष्ट: उद्धतः शत्रुः करोति ॥ १४॥ मिथ्यात्वयुतः पावनं दशधा धर्म दधातु। तु अस्तदूषणं भिक्षाशनं करोतु। धृतषिसविस्तरं योगं तनोतु । तथापि (स.) न मुच्यते ॥ १५॥ मिथ्यात्वदश: चतुर्विधं दानं बहुधा ददातु । अतिभक्तितः अर्हता पूजा करोतु। शीलं दधातु। अभोजनं तनुताम् । तथापि (स:) न सिध्यति ।। १६॥ अतत्त्वसंसक्तमनाः नरः विशेषतः शास्त्राणि अबैतु। भावतः चित्राणि तपांसि करोतु। तथापि गतबाघ विमुक्तिसौख्यं नो अश्नुते ।। १७ ।। यया गताक्षः जनः उत्तम विचित्रवर्णाञ्चितचित्र प्रदश्यमानम् (अपि) न बिलोकते, तथा कुदृष्टिजीवः जिनमाथशासनं न प्रपद्यते ।। १८॥ मया सशकर चारु पयः अति पिबन् अपि रौद्रविषः पन्नगः विषं न मुञ्चति तथा जिनस्य वचनं पठन्नपि प्राणियोंके जिस दोषको तीन मिथ्यात्वरूप शत्रु करता है उसे यहा न सिंह करता है न सर्प करता है, न हायी करता है, न राजा करता है, और न अतिशय क्रोधको प्राप्त हुआ बलवान् शत्रु भी करता है। [तात्पर्य यह कि प्राणियोंका सबसे अधिक अहित करनेवाला एक यह मिथ्यात्व ही है ]|| १४ | मियादृष्टि जीव भलेही दस प्रकारके पवित्र धर्मको भी धारण करे, निर्दोष भिक्षाभोजनको भी करे, और मनको विस्तृत करके ध्यान भी करे; तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता है | १५ | मिथ्यादृष्टि जीव बहुत प्रकारसे चार प्रकारका दान भी दे, अत्यन्त भक्तिसे जिनपूजा भी करे, शीळको भी धारण करे, और उपवास भी करे तो भी वह सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता है ॥ १६॥ तसश्रद्धानसे रहित मिथ्यादृष्टि मनुष्य विशेषरूपसे शास्त्रोंका परिज्ञान भले ही प्राप्त करले तया भावसे अनेक प्रकारके तपोंका भी आचरण क्यों न करे, तो भी वह निर्वाध मोक्षसुखको नहीं प्राप्त कर सकता है 11 १७॥ जिस प्रकार अन्धा मनुष्य दिखलाये जानेवाले अनेक वर्णयुक्त उत्तम चित्रको नहीं देख सकता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीत्र जिनेन्द्र भगवान्के मतको नहीं देख सकता है-उनके द्वारा निर्दिष्ट वस्तुस्वरूपको स्वीकार नहीं करता है ॥ १८॥ जिस प्रकार भयानक विषसे संयुक्त सर्प शकरसहित उत्तम दूधको अतिशय पीकर भी विषको नहीं छोड़ता है उसी प्रकार अभव्य जीव जिनवाणीका अध्ययन करके भी मिथ्यात्वलप विषको नहीं छोड़ता है। [ तात्पर्य यह कि अभव्य जीवका मिथ्यात्व कभी नष्ट नहीं हो सकता है और इसीलिये उसे कभी मोक्षकी प्राप्ति भी नहीं होती है ] ॥ १९ !! १स यस्त्वन", यमुप्र। २स दशधातुपावनं। इस करोति। ४ स om योग....करोतु। ५ स "तोईणं १६ । ६ स शोला। . सवशे। ८ स शुपति १७।९ स अवैति। १० स 'संशात, 'संतस्त । 11स विमुक्त । १२ स 'शुते १८॥ १३ स विलोक्यते। १४ स प्रदर्श। १५ स प्रवर्तते। १६९|| १७ स अभाष्य" । १८ स "विशोपि, "विषो ऽपि ! १९ स २०॥
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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