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________________ 140:७-१३] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्यनिरूपणद्वापञ्चाशत् 136) यथान्धकारान्धपटावृतो जनो विचित्रचित्रं न विलोकितुं क्षमः । यथोक्ततत्त्वं जिननाथभौषितं निसर्गमिथ्यात्वतिरस्कृतस्तथा ॥९॥ 137) दयादमध्यानतपोव्रतादयो गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्पयो । दुरन्त मिथ्यात्वरजोर्हतात्मनो रजोयुतालाबुगतं यर्थों पयः ॥१०॥ 138) अवैति तत्वं सदसत्वलक्षणं विना विशेष विपरीतरोचनः । यहच्छया मत्तयवस्तचेतनो जनो जिनानां वचनात्परास्मुखः ॥११॥ 139) त्रिलोककालत्रयसंमवासुर्ख• सुदुःसहं यत्रिविधं विलोक्यते । घराचराणां भवगर्तवर्तिनां तदत्र मिथ्यावयशेन जायते ॥१२॥ 140) वरं विष भुक्तमसुक्षयक्षम' वरं वनं श्वापदयभिषेवितम् ।। वरं कृतं बहिशिखाप्रवेशने मरस्य मिथ्यात्वयुतं म जीवितम् ॥ १३॥ यथा अन्धकारान्धपटावृतः जनः विचित्रचित्रं विलोकितुं न क्षमः तथा निसर्गमिथ्यात्वतिरस्कृत: जिननायभाषित यथोक्ततत्त्वं विलोकितुं न क्षमः ॥ ९॥ पथा रजोयुतालाबुगतं पय: (तथा) दुरन्त मिभ्यास्वरजोहतात्मनः दमामध्यानतपोवतादयः समस्ता गुणाः सर्वथा न भवन्ति ॥ १०॥ जिनाना वचनात् परामुखः विपरीतरोचनः जनः अस्तचेतनः (सन्) मतवत् यदृच्छया विशेष विना सदसत्वलक्षणं तत्त्वम् अवैति ।। ११॥ यत् सुदुःसहं त्रिविध विलोककालत्रयसंभवासुखं भवगवतिनां चराचराणां विलोक्यते तत् अत्र मिथ्यात्वपशेन जायते ।। १२ ।। असुक्षयक्षम विष मुक्तं बरम् । श्वापदवत् वनं निषेवितं वरम् । वहिशिखाप्रवेशनं कृतं वरम् । नरस्य मिथ्यात्वयुतं जीवितं न वरम् ।। १३॥ जिस प्रकार अंधेरेमें काले वस्त्रसे वेष्टित मनुष्य भीतरके अनेक प्रकारके चित्रको-अनेक वस्तुओं को नहीं देख सकता है उसी प्रकार अगृहीत मिथ्यात्व से तिरस्कृत जीव जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए यथार्य वस्तुस्वरूपको नहीं देख सकता है । [तात्पर्य यह कि मिथ्यात्वके उदयसे जिसे योग्य उपदेश आदिके प्राप्त होनेपर भी वस्तुस्त्ररूपका यथार्थ श्रद्धान प्राप्त नहीं होता है उसे अगृहीतमिथ्या दृष्टि समझना चाहिये ] ॥९॥ जिस प्रकार धूलियुक्त सूखी हुई बड़ी से बीजोंके निकल जानेपर जो शेष धूलि रह जाती है उसे संयुक्त तूंचड़ीमें स्थित दूध नहीं रहता है-वह विकृत हो जाता है-उसी प्रकार दुर्विनाश मिथ्यात्वरूप लिसे दूषित आत्मामें दया, दम (इन्द्रियदमन) ध्यान, तप और ब्रत. आदि गुण भी सर्वथा नहीं रहते हैं ॥ १० ॥ विपरीतरुचि ( मिथ्यादृष्टि ) मनुष्य विवेक से रहित होकर जिन भगवान्के वचनोंसे विमुख होता हुआ सत्य असत् स्वरूप पदार्थको पागलके समान विना किसी प्रकारकी विशेषताके ही मनमाने ढंगसे जानता है। [ अभिप्राय यह कि जैसे पागल पुरुष अन्तरंग दृढ़ताके बिना ही कमो माताको माता और कभी उसे एनी भी मानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी अन्तरंग विश्वासके बिना कभी सत् पदार्थको सत् और कभी असत् तथा कभी असत् पदार्थको असद और कभी उसे सत् भी मानता है ]॥ ११॥ संसाररूप गड्डेमें रहनेवाले उस-स्थावर जीवों के जो तीन प्रकारका असह्य दुख ( आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) तीन लोक और तीन कालोंमें सम्भव दिखता है वह उस मिथ्यात्वके वशसे ही होता है ॥ १२ ॥ प्राणोंके संहारक विषका भक्षण करना अच्छा है, व्याघ्रादि हिंसक जीवोंसे व्याप्त वनमें रहना अच्छा है, तथा अनिकी म्वालामें प्रवेश करना भी अच्छा है; परन्तु मनुष्यका मिथ्यालके साथ जीवित रहना अच्छा नहीं है।॥ १३ ॥ १ स तत्वले । २ स 'नाषितं । ३ स सर्यकाः। ४ स रजोयुता । ५ स स्वथाक पय। ६ स 'लोचनः । ७'भवा सुख। ८ स विलोच्यते । ९ स भवनात', 'गर्ति', भवगर्भ ।। 1. स भक्त । 11 क्षमा।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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