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________________ ३८ सुभाषित संदोहः 132 ) न धूयमानो भवति ध्वजः स्थिरों यथानिलैर्देव कुलोपरिस्थितः । समस्तधर्मानिलधूतचेतनों' विनीतिमिथ्यात्वपरस्तथा नरः ॥ ५ ॥ 133) समस्ततत्त्वानि न सन्ति सन्ति वा विरागसर्वच निवेदितानि वै । विनिश्चयः कर्मवशेन सर्वथा जनस्य संशीतिरुचेर्न जायते ॥ ६ ॥ 134) पयो युतं शर्करया कटूयते यथैव पित्तज्वरभाविते अने । तथैव तत्त्वं विपरीतमङ्गिनः प्रतीपमिध्यात्वशो विभासते ॥ ७ ॥ 135) प्रपूरितञ्चर्मलवैर्यथाशनं न मण्डलब्धर्मकृतः समिच्छति । कुहेतुदृष्टान्तवचः प्रपूरितो जिनेन्द्रसत्यं वितथं प्रपद्यते ॥ ८ ॥ [132: Į अमी जीवगुणाः सर्वथा न भवन्ति । च एकान्तदृशां भवन्ति इति बुध्यते ॥ ४ ॥ यथा देवकुलोपरि स्थितः ध्वजः अनिले, धूयमानः स्थिरः न भवति तथा विनीतिमिध्यात्वपरः नरः समस्तधर्मा निलधूतचेतनः भवति ॥ ५ ॥ विराग सर्वत्र निवेदितानि समस्ततस्वानि सन्ति वा न सन्ति इति कर्मवशेन संशीतिरुपेः जनस्य सर्वथा विनिश्वयः न वै जायते ।। ६ ।। यथैव पित्त रभाविते जने शर्करा युतं पयः कटूयते तथैव प्रतीपमियात्यदुमः निः तत्त्वं विपरीतं विभासते ॥ ७ ॥ यथा चर्मकृतः चर्मलकैः प्रपूरितः मण्डलः अशनं न समिच्छति तथा कुहेतुदृष्टान्तवचः प्रपूरितः जनः जिनेन्द्रतस्त्वं वितथं प्रपद्यते ॥ ८ ॥ ॥ Ti I ... १ स भजति ध्वज: ( ज ) स्थिति । ५ स वचः । वस्तुस्वरूपकी यथार्थता है । परन्तु एकान्तमिध्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता है। उसकी प्रतीतिमें जिस समय जो धर्म आता है उसे ही वह सर्वथा उसका धर्म मान बैठता है। जैसे- जीव सर्वथा पूर्णज्ञानस्वरूप ही है अथवा सर्वथा नित्य ही है आदि । इससे उसे वस्तुस्वरूपका यथार्थज्ञान व श्रद्वान नहीं हो पाता है और इसीलिये वह मोक्षमार्गसे दूर ही रहता है ॥ ४ ॥ जिस प्रकार देवगृहके ऊपर स्थित ध्वजा वायुसे कम्पित होकर स्थिर नहीं रहती है-चंचल रहती है उसी प्रकार विनयमिथ्यात्यके अधीन हुए प्राणीको प्रतीति भी समस्त धर्मो रूप वायु कम्पित होकर स्थिर नहीं रहती है। [ अभिप्राय यह है कि विनयमिध्यादृष्टि जीव देव - कुंदेव, गुरु-कुगुरु और धर्म-कुधर्म आदिमें विवेक न करके सबको समानरूपसे ही मानता है और तदनुसार ही उनकी भक्ति आदि भी करता है ] || ५ | मिध्यायके उदयसे जिस मनुष्य के वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा निर्दिष्ट समस्त तत्र वैसे ही हैं अथवा नहीं है, ऐसा सन्देह बना हुआ है उसे तत्त्वका निश्चय सर्वथा नहीं हो पाता है । [ अभिप्राय यह है कि वीतराग सर्वज़क द्वारा जो वस्तुस्वरूप बतलाया गया है वह वैसा ही है या नहीं है, ऐसी जिसके चलित प्रतिपत्ति ( अस्थिरता ) है उसे सांशयिक मिध्यादृष्टि समझना चाहिये ] ॥ ६ ॥ जिस प्रकार पित्तज्वर से पीड़ित मनुष्यको शक्कर से संयुक्त मीठा दूध कडुबा प्रतीत होता है, उसी प्रकार विपरीत मिथ्यादृष्टि प्राणीको भी वस्तुस्वरूप विपरीत ही प्रतिभासित होता है ॥ ७ ॥ जिस प्रकार चमड़ेके टुकड़ोंसे परिपूर्ण चमारका कुत्ता अनरूप भोजनकी इच्छा नहीं करता है उसी प्रकार खोटे हेतु ( युक्ति) और उदाहरणरूप वचनोंसे परिपूर्ण पुरुष भी जिनेन्द्रद्वारा कथित यथार्थ वस्तुस्वरूपको अन्यथा स्वीकार करता है। [ अभिप्राय यह है कि जो एकान्तवादी विद्वानोंकी कुयुक्तियों आदिसे प्रेरित होकर वस्तुस्वरूपको अन्यथा ( अयथार्थ ) स्वीकार करता है वह गृहीतमिप्पादृष्टि कहा जाता है ] ॥ ८ ॥ २ धूम | ३ सवि (वि) नीत । ४ स भयोयुतं ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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