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[७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापश्चाशत् ] 128) दुरन्तमिथ्यात्वतमोदिवाकरा बिलोकिताशेषपदार्षविस्तराः।
उशन्ति मिथ्यात्वतमो जिनेश्वरा यथार्थतत्त्वप्रतिपसिलक्षणम् ॥१॥ 120) चिदतैकाम्तविनीतिसंशयप्रतीपतामाहनिसर्गभेदतः ।
जिनैश्च मिथ्यास्वममेकघोवितं भवार्णवभ्रान्तिकर शरीरिणाम् ॥२॥ 130) परिग्रहेणापि युतांस्तपस्विनो वधे ऽपि धर्म बाधा शरीरिणाम् ।
___ अनेकदोषामपि देवतां जनैलिमोहमिथ्यात्ववशेन भाषते ॥३॥ 131) विबोधनित्यत्वसुखित्वकर्दताविमुक्तिसबेतुकृतज्ञतादयः ।।
- न सर्षथा जीवगुणा भवस्यमी भवन्ति चकारतरशेति बुध्यते ॥४॥ दुन्तमिथ्यात्वतमोदिवाकराः विलोकिताषपदार्थविस्तराः जिनेश्वराः मिथ्यात्वतमः यथार्यतस्याप्रतिपत्तिलक्षणम् उशन्ति ॥ १॥ जिनः च शरीरिणां भवार्णवधान्तिकरं मिप्यास्वं विमूढता-एकान्त-विनीति-संशय-प्रतीपता माह-निसर्पभेदतः अनेकधा उदितम् ।। २ ।। जनः निमोहमियाखवशेन परिग्रहेण युतान् अपि तपस्विनः; शरीरिणी बहुध वधे ऽपि धर्मम्, अनेकदोषाम् अपि देवतां भाषते ॥ ३॥ विनोष-नित्यत्व-मुखित्व-कर्तृतो-विमुक्ति-सबेतु कृतज्ञतावयः
जो कटिनतासे नष्ट होनेवाले मिथ्यात्वरूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सूर्यके समान हैं तथा जिन्होंने समस्त पदार्थोके विस्तारको जान लिया है ऐसे वे जिनेन्द्र देव मिथ्यात्वरूप अन्धकार को पदापोंके ययार्थस्वरूपके अश्रद्धानरूप बतलाते हैं। [ अभिप्राय यह है कि जीवाजीवादि पदापोंका यथार्थ श्रद्धान न होना यह मिथ्यात्व कहलाता है ] || १ | जो मिथ्यात्व प्राणियोंको संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण कराता है उसे जिन भगवान्ने अज्ञान, एकान्त, विनय, संशय, विपरीत, गृहीत और स्वभाव (अगृहीत)के मेदसे अनेक प्रकारका बतलाया है |॥ २ ॥ तीन मूढतारूप मिथ्यावके वशसे मनुष्य परिग्रहसे सहित भो जनोंको तपस्यी, बहुत प्रकारसे किये जानेवाले प्राणियोंके वधमें भी धर्म तथा अनेक दोषोंसे संयुक्त देवोंको भी यथार्थ देव बतलाया करता है | विशेषार्थ-लोकमहता (धर्ममूढता) गुरुमूढ़ता और देवमूढताके भेदसे मूढ़ता तीन प्रकारकी है। इनमें धर्म मानकर यज्ञादिकमें प्राणियोंका वध करना, गंगा आदि नदियों में स्नान करना,हिमालयके बर्फमें गलकर प्राण देना और सती होनेके रूपमें अनिमें जलना आदि कार्योको लोकमढ़ता या धर्ममूढ़ता कहा जाता है। जो आरंभ और परिग्रहसे सहित होकरके भी महत्त्वस्यापन करनेके लिये साधुका वेष धारण करते हैं उनकी गुरु समझ करके पूजा-भक्ति आदि करना गुरुमुदता कहलाती है। राग-द्वेषसे दूषित देवताओंको अभीष्टसिद्धिका कारण समझकर इसी आशासे उनकी उपासना करनेको देवमूढ़ता कहते हैं। इन मूढताओंके रहनेपर कभी निर्मल सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती है ॥ ३ ॥ विज्ञान, नित्यत्व, सुखित्व, कतत्वविमुक्ति-अकर्तृत्व (अथवा कर्तृत्व, विमुक्ति) और उस कर्तृत्वहेतुक कृतज्ञता (उपकारस्मरण ) आदि ये सर्वथा जीवके गुण नहीं हैं-विवक्षाभेदके अनुसार वे कथंचित् जीवके गुण हैं और कयचित् नहीं भी हैं; परन्तु एकान्समिथ्या दृष्टि उन्हें सर्वथा ही जीवगुण मानता है। विशेषार्थ-प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म होते हैं। उनमेंसे प्राणीको जब जिस धर्मकी विवक्षा होती है सदनुसार ही वह अपेक्षाकृत वस्तुका वैसा स्वरूप मानता है। उदाहरणके रूपमे किसी एक ही व्यक्तिमें पितृत्व, पुत्रव, मातुलस्व एवं भागिनेयत्व आदि अनेक धर्म हैं। उनमेंसे जब जिसकी अपेक्षा होती है तदनुसार पिता-पुत्र आदिका व्यवहार किया जाता है । यही
त्वमनोदिवा । २ स उसति। ३ स वि (वि) मदि। ४ स 'विनीत'। ५ स धनकमि', थिनेक', जिनेश्च । ६ स भ्रांत । ७ सयुतास्त । ८ स बो। ९स धम्मे। • सजना | 11 स दयाः।