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________________ 148.७-२१] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 147) भजन्ति नैकैकगुणं अयस्त्रयो इयं द्वयं च अयमेककः परः। इमे ऽत्र सप्तापि भवन्ति दुईशो यथार्थतत्त्वप्रतिपत्तिपर्जिताः ॥ २०॥" 148) अनन्तकोपादिचतुष्टयोदये त्रिभेदमिथ्यात्वमलोदये तर्था । दुरन्तमिध्यात्यविषं शरीरिणामनम्तसंसारकर प्ररोहति ॥२६॥ अभव्यजीव मिथ्यात्वविषं न मुञ्चति ।।१९।। त्रयः एकैकगुणं न भजन्ति । त्रयः द्वमं द्वयं च न भजन्ति । पर: एकक: अयं न भजति। अत्र इमे सप्त अपि दुर्दशः यथार्पसत्यप्रतिपत्तिवर्जिताः भवन्ति ॥२० 11 अनन्तकोपादिचतुष्टयोदये तथा विमेदमिथ्यात्वमलोदये (सति) शरीरिणाम् अनन्तसंसारकरं दुरन्त मिथ्यास्वविष प्ररोहसि ॥ २१।। यथा तदुद्भवः कृमि: तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन आदि तीन गुणों से किसी एक एकको नहीं मानते हैं। इनके अतिरिक्त तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि जीव उनमेंसे किन्हीं दो दो गुणोंको नहीं मानते हैं। अन्य एक मिष्यादृष्टि उन तीनोंको ही स्वीकार नहीं करता है। यहां ये सातों ही मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्गके यथार्थ ज्ञानसे रहित हैं। विशेषार्थ-मोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी एकतासे होती है, परन्तु कुछ मिथ्पादृष्टि. जीव ऐसे हैं जो इनमेंसे किसी एकको, दोको अथवा तीनोंको ही मोक्षके साधनभूत नहीं मानते हैं । यथा--- १ एक मिथ्यादृष्टि वह है जो कि उपर्युक्त तीनों गुणोंमें सम्यादर्शन व सम्यग्ज्ञान इन दो गुणोंको मानता है, परन्तु वह सम्यक्चारित्र को मोक्षका साधक नहीं मानता है। २ दूसरा मिश्यादृष्टि सभ्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को तो स्वीकार करता है, किन्तु वह सम्यग्ज्ञानको स्वीकार नहीं करता है । ३ तीसरा मिथ्यादृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको तो स्वीकार करता है, परन्तु वह सम्यग्दर्शनको स्वीकार नहीं करता है । ४ चतुर्य मिथ्यादृष्टि वह है जो केवल सम्यग्दर्शनको ही मोक्षका साधक मानकर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका निषेध करता है । ५ पांचवां मिथ्यादृष्टि केवल सम्याज्ञानको ही मोक्षका साधक मानकर सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र्य इन दोनोंका निषेध करता है । ६ छठा मिथ्यादृष्टि केवळ सम्यक्चारित्रको ही मोक्षका साधक मानकर सभ्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनोंका निषेध करता है | ७ सातवा मिथ्यादृष्टि उपर्युक्त उन तीनों ही गुणोंको मोक्षके साधनभूत नहीं मानता है । इस प्रकार ये सातों ही मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्गसे विमुख हैं। अतएव उनका परित्याग करना चाहिये ।।२०॥ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारका तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन प्रकारके मिथ्यात्वका भी उदय होनेपर प्राणियोंके अनन्त संसारको करनेवाला यह मिथ्यात्वरूप विष उत्पन्न होता है जिसको कि नष्ट करना अतिशय कठिन है। विशेषार्थ-प्राणीके जब तक अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियोंका (अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्वके विना पाचका ही) उदय रहता है तब तक उसे सम्यग्दर्शनंकी प्राप्ति नहीं होती है-तब तक वह मिथ्यादृष्टि रह कर अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता है । और जब उसके इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अधत्रा क्षयोपशम हो जाता है तब उसके औपशमिक, क्षायिक अयत्रा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है जिससे कि उसके संसारपरिभ्रमणका अन्त निकट आ जाता है ॥२१॥ जिस प्रकार नीममें उत्पन्न हुआ कीड़ा दूध आदि न प्राप्त हो सकनेसे उनके स्वादसे अनभिज्ञ रहता है और इसीलिये उसको नीमका रस ही स्वादिष्ट प्रतीत होता है उसी प्रकार जिस जीवने कभी जिनेन्द्रके वचनरूप रसायनका अनुभव नहीं किया है उसे कुतत्त्व ही - मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा प्ररूपित स ने (चै) कैकगुणत्रय। २ स om, द्वयं। ३ स दुर्दशा, दुर्दशो। ४ स २१॥ ५ सदयो । ६ स यथा, ७स २२||
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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