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________________ 113:६-११] ६. स्त्री [गुण ] दोषविचारपञ्चविंशतिः 112) घमोजो कठिनौ न वाग्पिरचना मन्दा गतिनों मति पक्रं' भूयुगलं मनो न जठर सामं नितम्बीन चे। युग्मं लोचनयोश्चलं न चरितं कृष्णाः कचा नो गुणा नीचे नाभिसरोवरं न रमणं यस्या मनोशाकृतेः ॥१०॥ 113) स्त्रीतः सर्वक्षनाथः सुरतचरणो जापते बाधषोध स्तस्माचीर्थ श्रुतास्यं जनहितकथक मोक्षमार्गावबोधः। तस्मात्तस्माद्विनाशो भवदुरितंततेः सौस्यममाद्विबाचं बुद्ध्वैवं स्त्री पवित्र विषसुखकरणी सजना स्वीकरोति ॥११॥ करतर्ने, क्षान्तितः भूतधात्री, सौभाग्यात् गिरिपतितनयां, रूपतः कामपल्ली विनिग्ये ॥ ९॥ मनोशकतेः यस्याः महोत्री कठिनी, वाग्विरचना न । गतिः मन्दा, मतिः न । भ्रूयुगल वर्क, मनः न । बठरं माम, नितम्बौ न । लोचनयोः युग्म जल परिसं न । कचाः कृष्णाः गुणाः नो। नामिसरोवर नीच रमण न ।। 1 । स्त्रीतः सुरनतचरकः सर्वशनामः भयात्रमोधर मायते । तस्मात् अनहितकयक. भुताख्य. वीर्यम्। वस्मात् मोशमार्गावमोभः। तस्मात् मबहरितवतेः विनाशः आमासे पृथिवीको, सौभाग्यसे पार्वतीको तषा सुन्दरता से कामकी पत्नी रतिको भी जीत लिया है। इसके भतिरिक्त मनोहर आकार को धारण करनेवाली जिस स्त्रीके केवल स्तर ही कठोर रहते हैं, न कि वचनप्रबन्ध; जिसकी केवळ गति ही धीमी होती है, न कि बुद्धि; जिसकी केवल दोनों मोहें कुटिल होती हैं, न कि मन जिसका केवल उदर कुश रहता है, न कि दोनों नितम्ब; जिसके दोनों नेत्र ही चंपक रहते हैं, न कि चरित्र; जिसके केवल बाल काले होते हैं, न कि गुण; तथा जिसका नामिरूप ताव नीच ( गहरा ) होता है, न कि रमण ( रमना)। उस सीसे जिनके चरणोंमें देवगण नमस्कार करते हैं तथा जो निर्वाध डान (अनन्त जान ) के धारक होते हैं ऐसे सर्वजनाथ ( तीर्थकर) जन्म लेते हैं, उनसे प्राणियोंके लिये हितकर कहनेवाला श्रुत नामका तीर्घ प्राट होता है, उस श्रुततीर्यसे मोक्षमार्गका मान प्राप्त होता.है उस मोक्षमार्ग के स्वरूपको जान लेनेसे संसारके बढानेवाले पापसमूहका नाश होता है, और फिर इससे निर्वाध सुख ( मोक्षमुख) प्राप्त होता है। इस प्रकार उस पवित्र स्त्रीको परम्परासे मोक्षसुखकी कारणीभूत जान करके सत्पुरुष स्वीकार करता है। विशेषार्य-प्राणीका हित निर्वाध शाश्चतिक सुखकी प्राप्तिमें है, वह सुख शानावरणादिरूप कोंके बन्धनसे छुटकारा पा जानेपर ही मिल सकता है, उक्त कमौके बन्धनसे प्राणी सब ही छूट सकता है जब कि उसे मोक्षमार्गका यथार्थ शान हो, वह मोक्षमार्गका ज्ञान श्रुततीर्थ (आगम) से प्राप्त होता है, इस श्रुततीर्षकी उत्पति जिनेन्द्र देवसे होती है, और उन जिनेन्द्र देवको जन्म देनेवाली वह पवित्र स्त्री ही होती है। इस प्रकार उस सुखकी प्राप्तिका कारण परम्परासे वह स्त्री ही है। इसीलिये सम्जन पुरुष उसे स्वीकार करके आत्मकल्याणके मार्ग प्रवृत्त होते हैं। परन्तु यह खेदकी बात है कि कामी जन उसकी इस पवित्रताको भूलकर केवल उसके निम्ब शरीरमें ही अनुरक्त होते हुए उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं ॥९-११॥ 1स वक्त्रं । २ स नितम्बो। ३ स नवा। Y स सुरणत । ५ स कम्छ ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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