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________________ ३२ सुभाषितसंदोहः 114) भृत्यो मन्त्री विपसौ भवति रतिविधौ यात्रे वेश्या विदग्धां लज्जालुर्या विनीता गुरुजनविनतां गेहिनी गेहकृत्ये । भक्त त्यो सखी या स्वजनपरिजने धर्मकर्मैकदक्षा साल्पक्रोधादपपुष्यैः सकलगुणनिधिः प्राप्यते स्त्री न मत्यैः ॥ १२ ॥ 115) कृत्याकृत्ये न वेत्ति त्यजति गुरुवचो नीचवाक्यं करोति लज्जालुत्वं जहाति व्यसनमतिमहद्वाहते निन्दनीयम् । यस्यां सक्तो मनुष्यो निखिलगुणरिपुर्माननीयो ऽपि लोके सामर्थानां निधाने वितरति युवतिः किं सुखं देहभाजाम् ॥ १३ ॥ 116) शश्वमायां करोति स्थिरयति न मनो मन्यते नोपकारं या वाक्यं वत्सत्यं मलिनयति कुलं कीर्तिवल्लीं लुनाति । सर्वारम्भैकहेतुर्विरतिसुखरतिध्वंसिनी निन्दनीया तां धर्मारामभत्र भजति न मनुजो मानिनी मान्यबुद्धिः ॥ १४ ॥ [114 : ६-१२ अस्माद् विबाधं सौख्यम् । एवं बुद्ध्वा सज्जनः शिवसुखकरणी पवित्रां स्त्रीं स्वीकरोति ॥ ११ ॥ अत्र या विपत्ती भृत्यः मन्त्री (वा), रतिविधौ विदग्धा वेश्या, या गुरुजनविनता छज्जा: विनीता, गेहकृत्ये गेहिनी, पत्यो भक्ता, स्वजनपरि जने सख्खी, या धर्मकर्मकदक्षा, अल्पक्रोधा, सकलगुणनिधिः भवति, सा स्त्री अस्पपुण्यैः मत्यैः न प्राप्यते ॥ १२ ॥ लोके माननीयः अपि मनुष्यः यस्यां सक्तः निचिलगुणरिपुः ( सन् ) कृत्याकृत्ये न वेत्ति, गुरुषवः त्यनति, नीचवाक्यं करोति, लज्जालुत्वं जाति, भतिमइत् निन्दनीये व्यसनं गाइते, सा अनर्थानां निधानं युवतिः देहभाजां सुखं वितरति किम् || १३ || या शश्वत् मार्याां करोति, मनः न स्थिरयति, उपकारं न मन्यते भवत्यं वाक्यं वक्ति, कुलं महिनयति, कीर्ति लुनाति, सर्वारम्भैकहेतुः विरतिसुखरतिध्वंसिनी, निन्दनीया ( अस्ति ) तां धर्मारामभवत्र मानिन मान्यबुद्धिः । जो स्त्री यहां आपत्ति समयमें दासीके समान पतिकी सेवा करती है, संकटके समयमें मंत्री के समान पतिके साथ योग्यायोग्यका विचार करती है, विषयभोगके समयमें चतुर वेश्या के समान पतिको आनन्दित करती है, छज्जाशील होती है, विनम्र रहती है, गुरुजनोंका आदर करती है, घरके कार्यमें योग्य गृहिणी ( गृहस्वामिनी) के समान चतुर होती है, पतिके विषयमें अनुराग करती है, कुटुम्बी जन और दासी दास आदि अन्य जनोंके विषय में मित्रतापूर्ण व्यवहार करती है, धर्मकार्यमें अतिशय निपुण होती हैं, तथा जो प्रतिकूल व्यवहारमें किंचित् ही कभी क्रोधको प्रगट करती है; ऐसी समस्त गुणोंकी स्थानभूत उस स्त्रीको साधारण पुण्यवाले मनुष्य नहीं प्राप्त कर सकते हैं किन्तु विशेष पुण्यात्मा पुरुष ही उसे प्राप्त करते हैं ॥ १२ ॥ लोक में प्रतिष्ठित मनुष्य भी जिस स्त्रीमें आसक्त होकर समस्त गुणका शत्रु होता हुआ कार्य व अकार्यका विचार नहीं करता है, महापुरुषोंके वचनका उल्लंघन करता है, निन्द्य वाक्यको बोलता है, छज्जाशीलताको छोड़कर निर्लज्ज बन जाता है, तथा निन्दनीय महान् दुर्व्यसनका सेवन करता है, वह समस्त अनर्थों ( दोषों) की स्थानभूत युवति की क्या प्राणियोंको सुख दे सकती है? अर्थात् कभी नहीं दे सकती है ॥ १३ ॥ जो निन्दनीय स्त्री निरन्तर कपटपूर्ण व्यवहार करती है, मनको स्थिर नहीं करती है-चंचलचित्त रहती है, उपकारको नहीं मानती है, असत्य वचन बोलती है, कुलको कलंकित करती है, कीर्तिरूप कताको काटती है, समस्त आरम्भोंकी अद्वितीय कारण है, तथा संयम जनित सुखके अनुरागको नष्ट करती है, धर्मरूप उद्यानको 1 १ स यत्र । २ स विगीता । ३ स गेहूनी ४ स भक्त्या स यत्या शक्ती, यस्याः शक्तो । ६ स रिपोर्मानवीयो । ७ स सानधनां । ८ स वितरतु । ९स वितरतिमुखं । १० स रतिध्वं ( मैं ) । ११ स भक्ती |
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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