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________________ सुभाषितसंदोहः 109 ) यत्कामार्तं धुनीते सुखमुपचिनुते प्रीतिमाविष्करोति सत्पात्राहारदानप्रभववरनृपस्थास्तदोषस्थ हेतुः । वंशाभ्युद्धारकर्तुर्भवति तनुभुवः कारणं काम्तकीर्ते स्तत्सर्वाभीष्टदात् प्रवदत न कथं प्रार्थ्यते श्रीसुरत्नम् ॥ ७ ॥ 110) कृष्ण केशपाशे वपुषि च शतां मीचतां नाभिविम्बे वक्रत्वं भूलतायामलककुटिलतां मन्दिमानं प्रयाणे । ari नेत्रयुग्मे कुचकलशयुगे कर्कशत्वं दधाना चित्र दोषानपि स्त्री लसति मुखरचा वस्तदोषाकरधीः ॥ ८ ॥ 111) बाइ मालां मलविकलतथा पद्धर्ति स्वर्भवानां स गत्यान्यपुष्टां मधुरवचमतो नेत्रतो" मार्गभार्थामें । सीतां शीलेन काट्या शिशिरकरतनुं क्षान्तितो भूतधात्रीं" सौभाग्याया विजिग्ये गिरिपतितनयां करूपतः कामपत्नीम् ॥ ९H [ 100: ६-७ चैवंः दशशतभगताम् आप्तवान् । देवानाम् अपि शष्टा सा सुबदना कस्य तुः मनसि न वर्तते ॥ ६ ॥ यम् कामार्ति धुनी, सुखम् उपचिनुते, प्रीतिम् आविष्करोति, भस्तदोषस्य सत्पात्राहारदानप्रभववरस्य हेतुः शान्युद्धारकर्तुः कान्तकीर्तेः समुर्भुवः कारणं भवति तत् सर्वाभीष्टदा स्त्रीसुरत्नं कथं न प्राप्ते, प्रवदत ॥ ७ ॥ केशपाशे कृष्णले पुषि कुलता, नाभिनिम्बे नीचत्वं, भ्रूलतायां ऋत्वम्, अलककुटिलतां प्रमाणे मन्दिमानं, नेत्रयुग्मे पापल्यं, कुचकलयुगे कर्मश च ( एतानंं) दोषान् दधाना अपि स्त्री मुखच्चा भ्यस्तदोषाकर ( दोषां रात्रिं करोतीति दोषाकरन्द्रः, पक्षे दोषाणामाकरः खनिः) श्रीः लसति चित्रम् ॥ ८ ॥ या बाहुइन्छेन मालां, मळविकलतया स्वर्भवानां पद्धति (सुराणां मार्गम् आकाशम् ), गत्या ईसीं, मधुरवचनतः भन्मपुष्ट, नेत्रतः मार्गभाव (मृर्गी), शीलेन सीतां, कान्त्या शिशिर जो बीरूप उचम रत्न मनुष्यकी कामपीडाको नष्ट करता है, सुखको उत्पन्न करता है, प्रेमको प्रगट करता है, उत्तम पात्रको दिये जानेवाले आहारदानसे उत्पन्न होनेवाले निर्दोष धर्मका कारण है तथा वंशकी रक्षा करनेवाले ऐसे निर्मल कीर्तिके धारक पुत्रका कारण है; कहिये कि उस इच्छित सब वस्तुओंके देनेवाले खीरूप रत्नकी प्रार्थना कैसे नहीं की जाती है ! अर्थात् उसकी सब ही जन अभिलाषा करते हैं ॥ ७ ॥ स्त्री बाके समूह में कालेपनको, शरीरमें दुर्बलताको ( कमर में पतलेपनको), नाभिमें नीचता ( गइरेपन) को मोंमें तिरछेपनको, बालोंमें कुटिलता ( घुंघरालेपन ) को, गमनमें मन्दताको, नेत्रयुग में चंचलताको और दोनों स्तनोंमें कठोरताको; इन दोषोंको धारण करती है। फिर भी वह अपने मुखकी कान्तिसे चन्द्रमाकी कान्तिको जीतनेवाली समझी जाती है, यह आश्वर्यकी बात है। क्षेत्र रूपमें यहां यह भी प्रगट किया गया है कि अनेक दोषोंको धारण करनेसे वह स्त्री दोषाकर दोषोंकी (खानि) है। इसीलिये वह दोषाकर (दोषोंकी खानीभूत, रात्रिको करनेवाले चन्द्र ) की कान्तिको तिरस्कृत करती है। अभिप्राय यह कि जो श्यामता आदि छोकमें दोष माने जाते हैं वे खीमें संश्लिष्ट होकर गुणरूप परिणमते हैं इनसे कामी जनकी दृष्टिमें उसकी सुन्दरता बढ़ती है ॥ ८ ॥ जिस स्त्रीने दोनों भुजाओंसे मालाको, निर्मलतासे देवोंके मार्गस्वरूप आकाशको, गमनसे हंसीको, मधुर भाषणसे कोको, नेत्रोंसे मुगकी स्त्री (मुगी) को, शीळ गुणसे सीताको, कान्ति से चन्द्रमाके शरीरको, सभुद्वार" । २स कीर्ति ३ स स्त्रीनुरने, नुरत्ने ४ स मंदमानं, मंदमाने, मंदिमाणं । ( Gloss: गजगमन 1 ) ५ स दोषादपि । ६ स लशति । ७ सom राहुदेन ८ स पद्धतीं। ९स पुष्टं १० स नेत्रयो । ११ समभाषा, मार्गभायो । १२ स धूतधात्री । L T
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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