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________________ २३१ 894 : ३२-१६] ३२. द्वादशविघतपश्चरणषट्त्रिंशत् 889) तपोधनानां व्रतशोलशालिनामनेकरोगादिनिपीडितात्मनाम् । शरोरतः प्रासुकभेषजेन च विधीयते व्यापति रुज्ज्वलावरात् ।। ११ ॥ 390) नियम्पते येन मनो ऽतिचलं बिलीयते येन पुराजितं रजः । बिहीयते येन भवात्रवो ऽखिल: स्वधीयते तज्जिनवाक्य मचितम् ॥१२॥ 8:1) ददाति यत्सौख्यमनन्तमव्ययं तनोति बोधं भुवनावबोधकम् । क्षणेन भस्मीकुरुते च पातक विधीयते ध्यानमिवं तपोधनः ॥ १३ ॥ 892) यतो जनो भ्राम्यति जन्मकानने यतो न सौख्यं लभते कदाचन । यतो व्रतं नश्यति मुक्तिकारणं परिग्रहो ऽसौ द्विविधो विमुच्यते ॥१४॥ 893) इवं तपो द्वादशभेवचितं प्रशस्तकल्याणपरंपराकरम् । विधीयते यमुनिभिस्तमोपहन लभ्यते तैः किमु सौरुपमव्ययम् ॥१५॥ 894) तपो ऽनुभाषो न किमत्र बुध्यते विशुद्धबोधेरियताक्षगोधरः। यवन्यनिःशेषगुणरपाकृत स्तपो ऽघिकश्चेज्जगतापि पूज्यते ॥१६॥ उज्वला ब्यापतिः विधीयते ॥ ११ ॥ येन अतिचञ्चलं मनः नियभ्यते, येन पुराजितं रजः विलीयते, येन अखिलः भवासवः बिहीयते तत् अचितं जिनवाक्यं स्वधीयते ॥ १२॥ यत् अनन्तम् अव्ययं सौख्यं ददाति, भुवनावबोधक बोध तनोति, क्षणेन च पातकं भस्मीकुरुते, इदं ध्यान तपोषनः विधीयते ॥ १३॥ यतः जनः जन्मकानने भ्राम्यति, यतः सौख्यं कदाचन न लभते, यतः मुस्तिकारणं व नश्यति, असौ द्विविधः परिग्रहः विमुच्यते ॥ १४ ॥ यः मुनिभिः इवं प्रशस्तकल्याणपरंपराकर तमोपहम् अचितं द्वादपाभेदं तपः विधीयतें तैः अव्ययं सौरमं न लभ्यते किम् ॥ १५ ॥ इयता विशुद्धबोधः अब अक्षगोचरः तपोनुभावः न बुध्यते किम् । यत् तपोऽधिक: अनिःशेषगुणैः अपाकृतः अपि जगता पूज्यते ॥ १६॥ विवेकिलोकः दिवाव्रत एवं शीलोंके धारक हैं उनके अनेक रोगों आदिसे पीड़ित होनेपर जो शरीरसे तथा प्रासुक औषधके द्वारा उनके रोगादिको नष्ट करनेका आदरपूर्वक निर्दोष व्यापार ( प्रयत्न ) किया जाता है उसे वैय्यावृत्य कहते हैं ॥ ११॥ जिस जिनवाक्य ( जिनागम ) के द्वारा अतिशय चंचल मनको नियमित ( अधीन ) किया जाता है पूर्वोपार्जित कर्मको नष्ट किया जाता है, तथा जिसके द्वारा संसारके कारणभूत आस्रवको रोका जाता है; उस पूज्य जिनवाक्यका जो उत्तम रोतिसे अध्ययन किया जाता है उसे स्वाध्याय तप कहते हैं ।। १२ ॥ जो ध्यान अनन्त एवं अविनश्वर सुखको देता है, विश्वको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानको विस्तृत करता है, तथा पापको क्षणभरमें नष्ट कर देता है उसे ध्यान कहा जाता है। इसको मुनिजन किया करते हैं ॥ १३ ॥ जिस परिग्रहके निमित्तसे मनुष्य संसाररूप वनमें परिभ्रमण करता है, जिसके कारण वह कभी भी सुखको नहीं पाता है, तथा जिसके निमित्तसे मोक्षका कारणभूत संयम नष्ट हो जाता है वह परिग्रह बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। उसका परित्याग करना, इसे व्युत्सर्ग तप कहा जाता है। परिग्रहभेदके अनुसार इस तपके भी दो भेद हो जाते हैं-बाह्योपधिब्युत्सर्ग और अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग ॥ १४ ॥ देवादिकसे पूजित यह बारह प्रकारका तप उत्तम कल्याण परम्पराका कारण है । जो मुनि अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले इस तपको करते हैं वे क्या अविनश्वर सुख ( मोक्षसुख ) को नहीं प्राप्त करते है ? अवश्य प्राप्त करते हैं ॥ १५ ॥ निर्मल सम्यग्ज्ञानी जीव क्या इतने मात्रसे उस तपके इन्द्रियगोचर ( प्रत्यक्ष ) प्रभावको नहीं जानते हैं ? कारण कि जो तपमें अधिक है वह अन्य शेष गुणोंसे रहित भी हो तो भी विश्वसे पूजा जाता है ।। १६ । विवेको जन १ स शरीरतो प्राशुक । २ स न्याश्रिपृथि , व्यापृथगु', व्यापथि । ३ स भवानवो । ४ स वाच्य । ५ स 'चरः । ६ सकृतं !
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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