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________________ २३० सुभाषितसंदोहः [886 : ३२-८ 886) यदासन स्त्रीपशुषणढवाजते मुनिनिवासे पठनादिसिद्धये। विविक्त शय्यासनसंज्ञकं तपस्तपोधनस्तद्विदधाति मुक्तये ॥ ८॥ 887) मनोवचःकायवशानुपागतो विशोध्यते येन मलो मनीषिभिः। श्रुतानुरूपं मलयशोधनं तपो विधीयते तदातशुबिहेतवे ॥ ९॥ 888) प्रयाति रत्नत्रयमुज्ज्वलं यतो" यतो हिनस्यजितकर्म सर्वथा। यतः सुखं नित्यमुपैति पायन विधीयते ऽसौ बिनयो यतीश्वरैः ॥ १० ॥ 'पठनादिसिद्धये यत् आसनं तत विविक्तशय्यासनसंज्ञक तपः । तपोधनः तत् मुक्तये विदधाति ॥ ८॥ मनीषिभिः येन । मनोवचःकायवशात् उपागतः मलः विशोध्यते, तत् मलशोधनं तपः अतदिहेतवे श्रुतानुरूपं विधीयते ।। ९ ॥ यतः पतिः उज्ज्वलं रलत्रयं प्रयाति । यतः अजितकर्म सर्वथा हिनस्ति । यतः पावनं नित्यं सुखम् उपति, यतीश्वरः असो बिनयः विधीयते ॥ १०॥ व्रतशोलशालिनाम् मनेकरोगादिनिगीहितात्मना तपोधनानाम् आदरात शरीरतः च प्रासुकभेषजेन की सिद्धि के लिये जो स्त्री और पशुओंके समूहसे रहित निरुपद्रव स्थानमें आसन लगाकर स्थित होते हैं उसे विविक्तशय्यासन नामक सप कहते हैं। उसे तपरूप धनके धारक साधु मुक्तिप्राप्तिके निमित करते हैं।॥ ८॥ बुद्धिमान मनुष्य जिस तपके द्वारा मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिके वश उत्पन्न हुए मलको आगमानुसार शुद्ध करते हैं उसे मलशोषन ( प्रायश्चित्त ) तप कहते हैं। उसे साधुजन व्रतकी शुद्धिके लिये किया करते हैं ॥९॥ जिस सपसे जीव निर्मल रत्नत्रयको प्राप्त होता है, जिससे संचित कर्मको सर्वथा नष्ट कर देता है, तथा जिससे पवित्र शास्वतिक सुखको प्राप्त करता है; उस विनय तपको मुनिराज किया करते हैं ।। १० । विशेषार्थविनयका अर्थ है उद्धतताको छोड़कर नम्रताको धारण करना। वह पांच प्रकार है-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचार विनय । इनमें शंकादि दोषोंको छोड़कर निःशांकित आदि आठ अंगोंसे सहित निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करना तथा पांच परमेष्ठियोंकी भक्ति आदि करना, यह दर्शनविनय कहलासा है। कालशुदिपूर्वक हाथ-पांव आदिको धोकर पल्यंक आसनसे स्थित होते हुए बहुत भादरके साथ जिनागमका पढ़ना या व्याख्यान करना, यह ज्ञानविनय है। ज्ञानविनयसे विभूषित साधु उस आगम गुरुकी पूजा व स्तुति करता है, वह जिस मागमको पढ़ाता है या जिसका व्याख्यान करता है उस आगमके तथा जिस गुरुके पास उसने अध्ययन किया है उस गुरुके भी नामको नहीं छिपाकर उसका कीर्तन करता है; इसके अतिरिक्त वह व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि एवं तदुभयशुद्धिके साथ पठन-पाठन करता है। इस प्रकारसे उक्त ज्ञानविनय बाठ प्रकारका हो जाता है । इन्द्रिय एवं कषायोंका निग्रह करना तथा समिति एवं गुप्तियोंका परिपालन करना, यह सब चारित्रविनय है। आतापन आदि उत्तर गुणोंमें उत्साह रखना, उनमें होनेवाले कष्टको निराकुलसापूर्वक सहन करना, उनके विषय में श्रद्धा रखना, उचित छह आवश्यकोंकी हानि या वृद्धि नहीं करना, जिस आवश्यकका जो नियमित समय हो उसी समयमें करना-उसमें हानि या वृद्धि न होने देना, जो साधु अधिक तपस्वी हैं उनमें अनुराग रखना तथा हीन सपस्वियोंकी अवहेलना न करना; यह सब तपविनयके अन्तर्गत है । आचार्य आदिके आनेपर उठकर खड़े हो जाना, उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करना, नम्रतापूर्वक परिमित व मधुर भाषण करना, इत्यादि उपचार विनय है ॥ १० ॥ जो मुनि तपरूप धनसे सम्पन्न हैं तथा १ स यदाशनं । २ स जितो, वजिता, वज्जिते । ३ स विचित्र । ४ स "संज्ञिक । ५ स तपो।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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