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________________ 885 : ३२-७] ३२. द्वादशविधतपश्चरणपत्रिंशत् 883) विचित्रसंकल्पलता विशालिनों यतो यतिर्दुःखपरंपराफलाम् । लनाति तष्णावति समलतस्तदेव वेश्मादिनिरोधनं तपः ॥५॥ 884) विजित्य लोकं निखिलं सुरेश्वरा वशं न नेतुं प्रभवो भवन्ति यम् | प्रयाति येनाक्षगणः स पश्यतां रसोजमनं तषिगदन्ति साधवः ॥६॥ 885) विचित्रभेदा तनुबाधनक्रिया विधीयते या श्रुतिसूचितामात् । तपस्तनुक्लेशमदः प्रचक्ष्यते "मनस्तनुक्तेशविनाशनक्षमम् ।। ७ ।। अताप्तये व संयमसाधनाय मिनभोजनं तपः विधत्ते ॥ ४ ॥ यतः यतिः दुःसपरंपराफला विशालिनी विचित्रसंकल्पलतां तृष्णावति समूलतः लुनाति, तदेव वेश्मादिनिरोधनं तपः अस्ति ।। ५ ॥ सुरेश्वराः निखिलं लोकं विजित्य यं वर्श नेतुं प्रभवः न भवन्ति स अक्षगणः मैन वश्यतां प्रयाति, साघवः तत् रसोजानं निगदन्ति ।। ६ ।। या विचित्रभेदा तनुबाचनक्रिया श्रुतिसूचितकमात् विधीयते, मनस्तनुक्लेशविनाशनक मम् बदः सनुपलेशं तपः प्रवक्ष्यते ॥ ७ ॥ स्त्रीपशुपण्डवजिते निवासे कारको जीतनेके लिये, आगमज्ञानको प्राप्त करनेके लिये तथा संयमको सिद्ध करनेके लिये मितभोजन ( अवमोदर्य तपको करते हैं-अनशनकी शक्ति न रहने पर संयम एवं स्वाध्यायके साधनार्थ अल्प भोजनको ग्रहण करते हैं।॥ ४ ॥ जो विस्तृत तृष्णारूप बेल अनेक प्रकारकी संकल्प-विकल्परूप शाखाओंसे सहित होकर दुख-परम्परारूप फलोंको उत्पन्न करती है वह जिस तपके द्वारा जड़-मूलसे छिन्न-भिन्न कर दी जाती है उसे वेश्मादिनिरोध ( वृत्तिपरिसंख्यान ) कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि आहारके लिये जाते हुए संयमके साधनार्थ जो दो चार गृह जाने आदिका नियम किया जाता है उसे वेश्मादिनिरोध या वृत्ति परिसंख्यान तप कहते हैं ॥५॥ विशेषार्थ—इस तपमें साधु गृह, दाता एवं पात्र आदिके विषयमें अनेक प्रकारके नियमोंको करता है। यथा आज मैं दो ही घरों में प्रवेश करूंगा; यदि इनमें विधिपूर्वक निरन्सराय आहार प्राप्त हुआ तो लूंगा, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार वृद्ध, युवा अथवा महिला यदि जूतोंसे रहित ( नंगे पैर) होकर मार्गमें प्रतिग्रह करेगी तो मैं आहार ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। वह पात्रके विषयमें भी नियम करता है कि यदि आज सुवर्ण अथवा चाँदीके पात्रसे आहार प्राप्त होगा तब ही उसे ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं ! इसप्रकारसे वह संयमको सिद्ध करने तथा सहनशीलताको प्राप्त करनेके लिये अनेक प्रकारके नियमोंको करता है तथा तदनुसार यदि आहार प्राप्त हो जाता है तो उसे ग्रहण करता है। परन्तु यदि इस प्रकारसे उसे आहार नहीं प्राप्त होता है तो वह इसके लिये न तो खिन्न होता है और न दाताको भी अविवेकी या मूर्ख समझता है ||५|| इन्द्र समस्त लोकको जीत करके भी जिस इन्द्रियसमूहको वशमें करनेके लिये समर्थ नहीं होते हैं वह इन्द्रियसमूह जिस तपके द्वारा अधीनताको प्राप्त होता है उसे साघु जन रसपरित्याग तप कहते हैं । अभिप्राय यह कि दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इन छह रसोंमेंसे अथवा तिक्त, कडुआ, कषाय, आम्ल और मधुर इन पांच रसोंमेसे एक दो आदि रसोंका परित्याग करना, इसे रस परित्याग सप कहा जाता है ॥ ६॥ आगममें सूचित क्रमके अनुसार शरीरको बाधा पहुँचानेवाली जो अनेक प्रकारको क्रिया (जैसे दण्डके समान स्थिर रहकर सोना तथा पर्यकासन एवं वीरासन आदिको लगाकर ध्यान करना आदि ) की जाती है उसे कायक्लेश तप कहा जाता है। वह मन एवं शरीरके संक्लेशको नष्ट करने में समर्थ है ।। ७ ।। मुनि स्वाध्याय व ध्यान आदि १स फलम् । २ स तदेक । ३ स स्वरे' । ४ स यः, ये । ५ स साधक ! ६ स विपित्रा येन तनु । ७ स प्रवक्षते । ८ स मनुस्त।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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