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________________ २३२ सुभाषितसंबोहः [895 : ३२-१७ 895) विवेकिलोफैस्तपसो विवानिशं विधीयमानस्य विलोकितो' गुणः । तपो विषत्ते स्वहिताय मानवः समस्तलोकस्य व जायते प्रियः ॥१७॥ 896) तनोति धर्म विधुनोति कल्म हिनस्ति दुःख विवषाति संभवम् । चिनोति सस्वं विनिहन्ति तामसं सपो ऽयवा किन करोति वेहिनाम् ॥ १८ ॥ 897) अवाप्य नृत्वं भवकोटि बुलभं न कुर्वते ये जिनभाषितं तपः। महाधरनाकरमेत्य सागरं व्रजन्ति ते ऽगारमानसंग्रहाः ।। १९॥ 198) अपारसंसारसमुतारकं न तन्वते ये विषयाकुलास्तपः। विहाय से हस्तगतामृतं स्फुट पिवन्ति मूढाः सुलसिप्सया विषम् ॥२०॥ 899) जिनेन्द्रचन्द्रोक्तिमस्तदूषणं कषायमुक्त विवषाति यस्तपः। ___ नदुर्मभं तस्य समस्सविष्टपे प्रजायते वस्तु मनोज मोप्तितम् ॥ २१ ॥ 900) अहो तुरन्ता जगतो विमूढता विलोक्यता संसृतिदुःखदायिनी। सुसाध्यमप्पन्नविधानतस्तपो यतो जनो दुःखकरो ऽवमन्यते ॥ २२ ॥ . निशं विधीयमानस्य तपसः गुणः विलोक्तिः । मानवः स्वहिताय तपः विधत्ते च समस्तलोकस्य प्रियः जायते ॥ १७ ॥ तपः देहिनां धर्म तनोति, कल्मषं विषुनोति, दुःखं हिनस्ति, समदं विदधाति, सत्त्वं चिनोति, तामसं विनिहन्ति, अथवा कि न करोति ॥ १८ ।। भवकोटिदुर्लभं नत्वम् अवाप्य ये जिनभाषितं तपः न कुर्वते, ते महापरत्नाकर सागरम् एत्य अरत्नसंग्रहाः अगारं ब्रजन्ति ॥ १९॥ ये विषयाकुलाः अपारसंसारसमुदतारकं तपः न तन्वते ते मूडाः हस्तगतामृतं विहाय सुख लिप्सया स्फट विष पियन्ति ॥ २०॥ यः जिनेन्द्रचन्द्रोदितम् अस्तदूषणं कषायमुक्तं तपः विषाति, तस्य समस्सविष्टपे ईप्सित मनोश वस्तु दुर्लभं न प्रवायते ॥ २१ ॥ अहो जगतो दुरन्ता संसृतिदुःखदायिनी विमूढता विलोक्यताम् । अन्नविधानतो ऽपि दिन-रात किये जानेवाले तपके प्रभावको देख चुके हैं। जो मनुष्य अपने कल्याणके लिये उस तपका आचरण करता है वह समस्त लोकका प्रिय हो जाता है ।। १७ ॥ तप धर्मको विस्तारता है, पापरूप मेलको धो देता है, दुखको दूर करता है, हर्षको उत्पन्न करता है, बलको संचित करता है तथा अमानको नष्ट करता है । अथवा ठीक है-वह तप प्राणियोंके किस हितको नहीं करता है ? समस्त कल्याणको करता है ।। १८| जो मनुष्य भव करोड़ों भदोंमें बुलंभ है उसको प्राप्त करके भी जो जीव जिनोपदिष्ट तपको नहीं करते हैं वे महामूल्य रत्नोंको खान स्वरूप समुद्रको प्राप्त हो करके भो रत्लोंके संग्रहसे रहित होते हुए ही भरको जाते हैं ॥ १९ ॥ विशेषार्थ-प्राणीका अनन्त काल तो निगोद आदि निकृष्ट पर्यायोंमें वीतता है। उसे मनुष्य पर्याय बहुत कठिनाईसे प्राप्त होती है। इस मनुष्य पर्यायका प्रयोजन सम्यग्दर्शनादिको धारण करके मोक्षसुखको प्राप्त करना है। कारण यह कि वह मोक्ष मनुष्य पर्यायको छोड़कर अन्य किसी भी पर्यायसे दुर्लभ है। इसलिये जो जीव इस दुर्लभ मनुष्य भवको पा करके भी आरहितमें प्रवृत्त नहीं होते हैं वे उन मूखोंके समान है जो कि रत्नोंके भण्डारभूत समुद्रफे पास पहुंच करके भी खाली हाथ ही घरको वापिस जाते हैं ॥ १९ ॥ जो जीव विषयोंमें व्याकुल होकर अपार संसाररूप समुद्रसे तारनेवाले तपको नहीं करते हैं वे मूर्ख हाथमें स्थित अमृतको छोड़कर सुखको इच्छासे स्पष्टतया विषको पीते हैं ॥ २०॥ जो प्राणी मिनेन्द्ररूप चन्द्रसे प्ररूपित निर्दोष एवं कषायसे रहित सपको करता है उसके लिये समस्त संसारमें इच्छित कोई भी मनोज बस्तु दुर्लभ नहीं होती है ।। २१ ।। जगत्की संसारपरिभ्रमण जनित दुस्खको देनेवाली दुविनाश उस मूढताको तो देखो कि १ स विलोकिता । २४ om, 171 ३ स वन्ति । ४ स मनोन्य । ५ स दुरन्ताय गद्रो ! ६ स विमूढतां । ७ म विलोक्य तां । ८ सवापिनीम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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