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________________ 905 : ३२-२७ ] १२. द्वावशविवतपश्चरणधविशत् 901) कृत 'अमरद्विफलो न जायते कृतधमा 'वते ऽनचं सुखम् । कृतम पचेद्विवृते [?] फलाय च न स भ्रमः 'साधुजनेन मन्यते ॥ २३ ॥ 902) अमं विना नास्ति महाफलोदयः श्रमं विना नास्ति सुखं कदाचन । यतस्ततः साधुजनैस्तपः षमो न मन्यते ऽनन्तसुखो महाफलः ॥ २४ ॥ 903) अहर्निशं जागरणोद्यतो जनः श्रमं विषत्तं विषयेच्छया यथा । तपः अमं चेत् कुरुले तथा क्षणं किमस्तुते ऽनम्ससुखं न पावनम् ॥ २५ ॥ 904) समस्तद्दुः खायकारणं तपो विमुष्य "यो ऽङ्गी विषयान्निषेवते । विहाय सोमण सुखावहं विचेतनः स्वीकुरुते बतोपलम् ॥ २६ ॥ 905) ष्टियोगात् प्रियविप्रयोगतः परापमानात नहीन जीवितात्' । अनेकजम्मव्यसनप्रबन्धतो विभेति नो यस्तपसो विभेति सः ॥ २७ ॥ २३३ सुखाभ्यं तपः यतः दुःखकरो जमः अवमन्यते ॥ २२ ॥ कृतश्रमः विफलः न जायते चेत्, कृतश्रमा अनषं सुखं दधते चेत्, कृतमः फलाप विवृते चेतु, साधुजनेन सः श्रमः न मन्यते ॥ २३ ॥ यतः श्रमं विना महाफलोदयः न अस्ति । श्रमं विना कदाचन सुखं न अस्ति । ततः साधुजनः अनन्तसुखः महाफलः तपः श्रमः न मम्पते ॥ २४ ॥ अहर्निशं जागरणोचतो जनः यथा विषयेच्छया धर्म विषते तथा क्षणं तपःश्रमं कुरुते चेत् पावनम् अमन्सुखं न अनुते किम् ॥ २५ ॥ यः लङ्गी समस्तदुःखक्षयकारणं तपः विमुच्य विषयान् निषेवते सः विचेतनः सुखावहम् अनर्घ्यमणि विहाय उपलं स्वीकुवते व ॥ २६ ॥ यः उपसः विभेति सः अनिष्टयोगात् प्रियविप्रयोगतः परापमाभात् धनहीनजीविताद् मनेकजन्मध्यसमप्रयन्यतः मो जिसके कारण प्राणी अन्न के विधानसे उपवास एवं अवमोदयं व्यादिसे - सरलतासे सिद्ध करने योग्य भी सपको दुखकारक मानता है, यह आश्चर्यकी बात है ॥ २२ ॥ यदि किया हुआ परिश्रम व्यर्थ नहीं होता है, यदि श्रमको प्राप्त हुए मनुष्य निष्पाप सुखको धारण करते हैं, तथा किया हुआ परिश्रम यदि फलके निमित्त होता है तो साधु जन उसे श्रम नहीं मानते हैं || २३ ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय इसका यह है कि जिस परिश्रमका कोई फल नहीं होता है ( जैसे ऊसर भूमिको जोतकर उसमें बीज बोने आदिका परिश्रम ) अथवा जिस परि परिश्रम ही वास्तव में परिश्रम कहे श्रम से केवल दुख या किंचित् सुखके साथ अधिक दुख प्राप्त होता है वह जाने योग्य है, क्योंकि उससे प्राणी दुखी ही रहता है । परन्तु तपमें जो कुछ परिश्रम होता है उसे विवेकी साधु कभी परिश्रम ( कष्टकारक ) नहीं समझते हैं; क्योंकि वह निष्फल नहीं होता है, किन्तु मोक्षरूप फलका दायक होता है । अतएव सज्जनोंको सपके परिश्रमको कष्टप्रद न समझ उसमें प्रयत्नशील होना चाहिये ॥ २३ ॥ इसके अतिरिक्त चूंकि परिश्रमके बिना प्राणीको कभी महान् अभ्युदयकी प्राप्ति नहीं होती है तथा उक्त परिश्रमके बिना चूंकि कभी सुख भी नहीं होता है इसीलिये अनन्त सुखरूप महान् फलको देनेवाले तपके लिये परिश्रमको साधुजन कभी परिश्रम (अनिष्ट) नहीं मानते हैं ॥ २४ ॥ मनुष्य दिन-रात जागरण में उद्यत होकर जिस प्रकार विषयमुखकी इच्छासे परिश्रम करता है उस प्रकार यदि क्षण भरके लिये वह तपके लिये परिश्रम करता है तो क्या वह पवित्र अनन्त सुखको नहीं प्राप्त होता है ? अवश्य प्राप्त होता है ||२५|| जो प्राणी समस्त दुःखोंके नाशके कारणभूत सपको छोड़ करके विषयोंका सेवन करता है वह मूर्ख सुखदायक अमूल्य मणिको छोड़ करके पत्थरको स्वीकार करता है, यह खेवकी बात है || २६ || जो प्राणी अनिष्ट वस्तुके संयोग, इष्ट वस्तुके वियोग, १ कृतः श्रम २ जायेते । ३ स कृतः श्रम" भ्रम । ४ सदवले ५ स कृतः श्रम, भ्रमस्वि वि° । ६ संसुजनेन । ७ स योगी ८ स " हानि for होन । ९ स जीवनात् । सु. सं. २०
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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