SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - 226 : ९-१५ मुभाषितसंदोहः 221) विलोक्य मातृस्वसृबेहजावत् स्त्रीणां त्रिक रागवशे न यासाम् । बिलोकनस्पर्शनसंकयाम्यो निवृत्तिरुक्तं तवमैथुनस्वम् ॥ १२॥ 222) सचेतनाचेसनभेक्नोत्याः परिग्रहाः सन्ति विचित्ररूपाः । तेभ्यो निवृत्तिस्त्रिविधेन यत्र संग्यमुक्तं तवणस्तसंगैः॥१३॥ 223) पुगान्तरप्रेक्षणतः स्वकार्यादिवा पथा अन्तुविजितेन । यतो मुनेर्जीवविवावहान्या गतिवरे समितिः समुक्ता ॥१४॥ 224) आत्मप्रवासापरबोषहासपैशुन्यकाश्यविस्यवाश्यम् । विषय भाषां पवता मुमोना यान्ति भाषा समिति जिनेन्द्राः॥१५॥ 225) अनुवगमोत्पादनवल्भवोषा ममोवचःकायविकल्पशुखा। सकारणा" या मुनिपस्य मुक्तिस्तामेवनाल्यां समिति पन्ति ॥१६॥ 226) आवाननिक्षेपविधेविषाने व्यस्म योग्यस्य मुनेः प्रयत्नः। आदाननिक्षेपणनामधेयां' वन्ति सम्तः समिति पवित्राम् ॥१७॥ त्रिक मातृस्वसदेहज़ावत् विलोक्य रागवशे न (तपा) विलोकनस्पर्शनसंकयाम्यो निवृतिः सद् अभपुनत्वम् उक्तम् ।। १२॥ सचेतनाचेतनभेदनोत्याः विचित्ररूपाः परिग्रहाः सन्ति । यत्र तेभ्यः त्रिविधेन निवृत्तिः तद् अपास्तसंगैः नैसंग्यम् उक्तम् ॥ १३ ॥ दिवा स्थकार्यात् जन्तुविजितेन पपा युगान्तरप्रेक्षणतः यतः मुनेः जीवविवाघहान्या वरा गतिः ईर्यासमितिः समुक्ता ॥ १४॥ जिनेन्द्राः आत्मप्रशंसापरदोषहासप्रेक्षम्यकाकंश्यविरुद्धवाक्यं विवर्ण्य भाषां वदतां भुनीना भाषासमिति वदन्ति ॥ १५ ॥ भुनिपस्य या अनुगमोत्पादनवरभदोषा मनोवधःकाषिकल्पशुद्धा सकारणा मुक्तिः ताम् एषणास्यां समिति वदन्ति ॥ १६ ॥ मुनेः योग्यस्य द्रव्यस्य वादाननिक्षेपविधे: विषाने प्रयत्नः । सम्तः (ता) आवामनिक्षेपणनामधेयां पवियां किसीको रक्खी हुई, गिरी हुई, भूलो हुई छोटीसे छोटी भी चीज बिना दिये मन-वचन-कायसे ग्रहण न करना तीसरा बचौर्यवत है ।। ११॥ वृद्धाको मां के समान, यूवतीको बहिनके समान, कन्याको पुत्रीके समान मानकर, सब स्त्रीमात्रके साथ राग भावसे उनके अंग-उपांगोको देखना, उनको स्पर्श करना, उनसे राग कथा-गोष्ठी करना इन सबका त्याग मैथुन विरति नामक चौथा ब्रह्मचर्यव्रत है ॥ १२ ॥ सचेतन और अचेवनके भेदसे परिग्रह अनेक प्रकारका है। उनसे मन-वचन-कायसे निवृत्ति करना, उन पर मूर्खा-ममत्व परिणाम न रखना उसे परिग्रह त्यागी मुनियोंने परम निग्रंथ नामक परिग्रहत्याग पत कहा है ॥ १३ ॥ चलते समत एर्केद्रियादि जीवोंकी विराधना न हो, उनको बाधा न पहुंचे इस सावधानीसे आगेकी हस्तप्रमाण जमीन देखकर चलना, अपने आरम-हित कार्यके लिये ही गमन करना, दिनमें हो गमन करना, जीव जन्तु रहित मार्गसे गमन करना यह मुनियोंको श्रेष्ठ ईर्यासमिति कही गई है ।। १४ || आत्मप्रशंसा, परनिदा, उपहास, पिशुनता (चुगल) ककंशकठोर वचन तथा आगम विरुद्ध वचनको छोड़कर जो हित-मित-प्रिय वचन बोलते है उन वचनयोगी मुनियोंकी वह भाषा-समिति है ऐसा सर्वज्ञ देव कहते हैं ॥ १५ ॥ उद्गम आदि छयालीस दोष तथा बत्तीस अंतरायोंसे रहित मन-वचन-कायको शुद्धि पूर्वक, रत्नत्रयका निर्दोष पालन करनेके उद्देशसे शरीरकी स्थिसिके लिये प्रासुक आहार लेना, उसे मुनियोंकी एषणासमिसि कहते हैं ।। १६ ॥ दिगंबर मुलिके योग्य पिच्छि कमंडल, शास्त्र १स देहयाव । २ स तक, स्विकं, विकं । ३ स.°वशेन । ४ स am. °हतं to यत्र in verse No. 13 । ५ स भेदतोर्याः, दतोक्ता। ६ स या च, यात्रा । ७ स यथा। ८ स सत्लो मुने, यत्र मुने, यत्लान्मुने । ९ वर्या स।१० स भाषां स । ११ सबला; कल्म । १२ स °शुद्धाः । १३ स स्वकारणा । १४ विधि। १५ स योगस्य, योग्यंस । १६ स सपनः । १७ सयं, येयं । १८ स पवित्र।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy