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________________ 220 : ९-११ ] ९. चारित्र निरूपणत्रयस्त्रशत् 216) हतं घटोयन्त्रचतुष्पदावि सूर्येन्दु वासाग्निकरैर्मुनीन्द्राः । "अस्पतवातेन हतं वहत्व यत्प्रासुकं तनिगदन्ति वारि ॥ ७ ॥ 217) भवत्यवयाहिमांशु 'घूमरोरीघनाम्बु शुद्धोदकमिन्दुशोकरान् । विहाय शेषं व्यवहारकारणं मुनोशिनां वारिविशुद्धिमिच्छताम् ॥ ८ ॥ 218) उष्णोदकं प्रतिगृहं यवकारि' लोकैस्तच्छ्रावकः " विवति नान्यजनः' काचित् । तत्केवलं मुनिजनाय विधीयमानं बलीयसंततिविराधनसाधनाय ॥ ९ ॥ 219) यथार्थवाक्यं रहितं कषायैरवीडनं प्राणिगणस्य" पूतम्" । गृहस्थभाषा विकल' हितार्थ " सत्यवतं स्याद्वदतां यतीनाम् ॥ १० ॥ 220) प्राभाविनष्टानि धनं परेषामगुत्तो" उत्पादि" मुनेस्त्रिषापि । भवत्यवसप्रहषजं नाख्यं व्रतं मुनीनां गदितं हि लोके ॥ ११ ॥ ू पितां मुनीनां पञ्जीवधातं कथयन्ति ।। ६ ।। यद् वारि घटीयन्त्रचतुष्पवादि सूर्येन्दुबातान्निकरः हतं, अत्यन्तवतिन हृतं वहत् च मुनीन्द्राः तत् प्रासूकं निगदन्ति ॥ ७ ॥ वारिविशुद्धिम् इच्छतां मुनीनाम् अवश्याय हिमांशुधूमरीघनाम्युशुद्धोदकविन्दुशीकरान् विहाय शेषं व्यवहारकारणं भवति ॥ ८ ॥ लोकः प्रतिगृहं यद् उष्णोदकम् मकारि तत् भावकः पिवति । कदाचित् अन्यजनः न केवलं मुनिजनाय विधीयमानं तत् षड्जीवसंततिविराधनसाधनाय (भवति) ।। ९ ।। कषायैः रहितं प्राणिगणस्य अपीडनं, पूतं, गृहस्थभाषाविकलं यथार्थवाक्यं हितायं वदतां यतीनां सत्यवतं स्यात् ।। १० ।। परेषां ग्रामादिनष्टादि अल्पादि धनं त्रिघापि अगुहृतः मुनेः लोके मुनीनाम् अदसग्रहवर्जनात्र्यं व्रतं गतिं भवति ॥ ११ ॥ मासां स्त्रीणां रखते हैं उनको षट्कायिक जीवोंके घातका दोष लगता हैं ऐसा संत पुरुष कहते है ॥ ६ ॥ जो जल घटीयंत्र द्वारा आहत हो, जो चतुष्पद गाय-भैंस आदि जानवरोके पाँवोंसे ताडित हो, जो सूर्य-चंद्रकी किरणोंसे, वायुसे, अग्निसे, तथा हाथोंसे आहत हो, अत्यंत वेगवान वायुसे आहत हो, अथवा जो जल प्रवाहरूपसे बहता है उसको प्रासुक जल कहते हैं ॥ ७ ॥ " पाला, मोले, मोस बिन्दु" मेघकी जलधारा आदि छोड़ कर शेष जल विशुद्धि करनेकी इच्छा करने वाले मुनिजनोंको व्यवहार करने योग्य है ॥ ८ ॥ जो उष्णजल प्रत्येक घरमें श्रावक लोकों द्वारा ही अपने लिये गरम किया हो वह मुनि जनोंको पीने योग्य है। श्रावकोंके सिवाय अन्य लोकोंने गरम किया हुआ जल, अथवा जो केवल मुनिजनोंके लिये गरम किया हो, वह जल पीने योग्य नहीं है; क्योिं वह षट् काय जीवोंकी संततिकी विराधनाका कारण होता है ॥ ९ ॥ जो वचन यथार्थ है, कषायोंसे रहित प्राणियोंको पीड़ा न पहुँचाने वाला है। पवित्र भावनासे युक्त है, गृहस्य लोक व्यापार आरंभ विषयक जो वचन बोलते हैं उससे रहित है, अथवा गृहस्थी जनोंके साथ कुशल वार्ता आदि विषयक जो भाषा बोली जाती है। उससे रहित है, ऐसे यथार्थं वचन बोलने वाले मुनियोंके सत्य व्रत होता है। विशेषार्थ - जो हित-मित है, तथा जीवोंको पीड़ा कारक न हो ऐसा सार्थक वचन बोलना ही, वचनयोगो मुनियोंका सत्य व्रत कहा जाता है ॥ १० ॥ मन, वचन, काय पूर्वक दूसरेका राज्य आदि तथा खोया हुआ घन आदि अथवा अल्पसी कोई चीज भी बिना दिये ग्रहण न करना यह मुनियोंका अदल ग्रहणत्याग नामक व्रत कहा गया है। भावार्थ १ स प्रत्यंता, अत्यंवाते, अत्यंसवाये । २ स निहितं ३ स प्राशुकं प्रांशुकं । ४ स हिमासु, हिमांस घूसरी । ५ स मनीषिणां । ६ स यदकार। ७ स तच्छुवकैः तच्छ्रावकैः । ८ स नान्यजनैः । ९ स वाच्यं । १० स पीडितं । ११ स तस्य । १२ सपुतें । १३ स विरलं । १४ स यथार्थ । १५ स सत्यं व्रतं । १६ स परेषां न गृहृतौ । १७ स पादिमुने । सु. शं. ८ 1
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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