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सुभाषितसंदोहः 212) हिंसानृतस्तेयमयान्यसङ्गनिवृत्तिरुक्तं व्रतभङ्गभाजाम्।
पप्रकार शुभभूतिहेतु जिनेश्वरतिसमस्ततत्त्वैः ॥३॥ 213) 'जीवास्त्रसस्थावरभेदभिन्नास्त्रसाश्वसुर्धान भवेपुरन्ये।।
'पञ्चप्रकारास्त्रिविषेन तेषां रक्षा स्वहिसावतमस्ति पूतम् ॥ ४॥ 214) स्पर्शेन वर्णेन रसेन गन्धायवन्यपा चारि गत स्वभावम् ।
तत्प्रासुकं साधुजनस्य योग्य 'पातुं मुनोत्रा निगम्ति जैनाः ॥५॥ 215) उष्णोधक साधुजनाः पियन्ति मनोवचःकापविशुद्धिसम्यम् ।
एकान्ततस्तत्पिवता मुनीनां षड्जीवघातं कषयन्ति सन्तः ॥ ६ ॥
प्रजायते ॥२॥ प्रातसमस्ततत्त्वैः जिनेश्वरः शुमभूविहेतुः हिंसानृतस्तेषजयान्यसंगनिवृत्तिः (इति) पश्चप्रकारं पतम् अङ्गभाजाम् उक्तम् ॥ ३ ॥ जीवाः सस्थावरभेदभिम्माः । अत्र प्रसाः चतुर्षा भवेयुः । अम्ये पचप्रकाराः । तेषां त्रिविधन रक्षा पूतम् अहिंसाव्रतम् अस्ति ॥ ४॥ यत् स्पर्शन, वर्णेन, रसेम, गम्घात् अन्यथा, गतस्वभावं शरि तत् प्रासुकं, जैनाः मुनीन्द्रा. साधुजनस्य पातुं योग्यं निगदन्ति ।। ५ ।। साधुजनाः मनोवचःकाय विशुशिलब्धम् उष्णोदकं पिवन्ति । सन्तः एकान्ततः तत् चारित्र आत्माका स्वभावभाव होनेसे साध्यरूप है। और सरागचारित्र वीतराग चारित्रकी भावना सहित होनेसे उसको वीतराग चारित्रका साधन उपचारसे कहा गया है। वास्तवमें सरागता वीतरागताका साधक नहीं है। सरागतामें सरागताके अभावकी ही भावना मुख्य होनेसे उपचारसे सरागताको भी साधक कहा गया है ।।२॥ हिंसा-अनृत-स्तेय-जनी (स्त्री) संग (परिग्रह ) इन पांच प्रकारके पापपरिणामों से निवृत्तिरूप व्यवहारचारित्र पांच प्रकारका है। यह व्यवहार चारित्र पुण्यकमके बंधका कारण है ऐसा समस्त पदाथोंको जाननेवाले सर्वज्ञदेवने कहा है। विशेषार्थ—इस श्लोकमें पं पापोंसे निवृत्तिरूप व्यवहारचारित्रके ५ भेदोंका वर्णन किया है। यह व्यवहारचारित्र पांच प्रकार का है। १. हिंसाविरति व्रत, २. असत्यविरति व्रत, ३. स्तेयविरति यत, ४. ब्रह्मचर्य व्रत (स्त्रीनिवृत्ति व्रत), ५. परिग्रहनिवृत्ति प्रप्त । यह पाँच प्रकारका व्रत पुण्यकर्म बन्धका ही कारण है। पापोंसे निवृत्तिरूप होनेसे पापबन्धका कारण नहीं है। इसलिये यावत्काल संसार जीवन है तावत्काल नरकादि दुर्गति असाता दुःखसे बचाकर सुगसि साता सुखमय जीवनके लिये कारण है। इसलिये जानी जीवोंके तावत्काल प्रवृत्ति करने योग्य है। तथापि उसमें भी शुभ प्रवृत्तिसे भी निवृत्तिकी भावना ही मुख्यतासे रहती है। तब ही यह व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्रका साधक कहा जाता है ॥ ३ ॥ संसारी जीवके २ मेद है-१ अस २ स्थावर । स जीव चार प्रकारके है और स्थावर जीव पांच प्रकारके है । इन त्रस स्थावर जोवोंकी मन-वचन-काय पूर्वक तोन योग पूर्वक रक्षा करना, उनके घात करनेके परिणाम नहीं रखना यह पवित्र अहिंसा व्रत है॥४॥ जो अहिंसा व्रतको पालन करनेवाले मुनि है उन्हे अहिंसा व्रतका निर्दोष पालन करनेके लिये प्रासुक जल हो पीना चाहिये । मिस जलका स्पर्श-रस-गंध-वर्ण स्वभाव बदल गया है ऐसे उष्ण जलको प्रासुक जल कहते हैं। ऐसा जैन आचार्य कहते हैं ॥ ५ ॥ जो साघुलोक सब प्रकारके हिसाके त्यागी है वे मन-वचन-काय मुद्धि पूर्वक प्राप्त हुआ उष्ण उदक ही पीते हैं। और वो ऐसा नहीं करते, केवल उष्ण उदकका ही मतलब रखते है, मन वचन-कायको शुद्धताको सावधानी नहीं
१ स हिसावृत । २ स °स्तेय-जनीति जनाति । ३ स निवृत्तिरूपं । ४°प्रकारांशु । ५ स हेतुभूति । इस जीवश्व, जीवात्र। ७ स पंचप्रकारात्रि, प्रकारं"।८ स राममहिंसा । ९ स गतं । १० स प्राशुकं, प्रांशुकं । ११ स योग ।