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________________ [ ५. इन्द्रियरागनिषेधविंशतिः ] 83) स्वेच्छाविहारसुखितो' निवसन्नगानां भक्षैद्वने किसलयानि मनोहराणि । आरोहणकुशविनोदनबन्धनादि दन्ती त्वगिन्द्रियवशः समुपैति दुःखम् ॥ १ ॥ 84) तिष्ठन् जले ऽतिविमले विपुले यथेच्छ सौल्येन भीतिरहितो रममाणचित्तः । गृधो रसेषु रसनेन्द्रियतो ऽतिकष्टुं निष्कारणं मरणमेति षडीक्षणो ऽत्र ॥ २ ॥ 85) नानातरुप्रसवसौरभवासिताको प्राणेन्द्रियेण मधुपो यमराजधिष्ण्यम् । गच्छत्यशुद्धमतिर गतो विषर्किं गन्धेषु पद्मसदनं समवाप्य दीनः ॥ ३ ॥ 86) सजाति पुष्पकलिकेयमितीय मत्वा दीपार्चिषं हतमतिः शलभः पतित्वा । . रूपावलोकनमना रमणीयरूपे मुग्धो ऽवलोकनवदशेन यमास्यमेति ॥ ४ ॥ 87) दूर्वाङ्कुराशनसमृद्धषपुः कुरङ्गः क्रीडन्वनेषु इरिणीमिरसी विलासैः । अत्यन्तगेयरवदमना वराकः श्रोगेन्द्रियेण सैमवर्तिमुखं प्रयाति ॥ ५ ॥ स्वेच्छाविहारसुखितः निवसन् नगानां मनोहराणि किसलयानि भक्षद् बन्ती त्वगिन्द्रियवशः सन् बारोहणा कुशविनोदन ( प्रेरण) बन्धनादिदुःखं समुपैति ॥ १ ॥ अतिविमले विपुले जले सौस्येन तिष्ठन् भीतिरहितः यथेच्छं रममाणचित रसेषु गृधः षडीक्षण: ( मत्स्थः) अन्न रसनेन्द्रियतः निष्कारणम् अतिकष्टं मरणम् एति ॥ २ ॥ अक्ष नानातरुप्रसवसौरभवाः सिताङ्गः अशुद्धमतिः पद्मसदनं समवाप्य गन्धेषु विषक्ति यतः दीनः मधुपः प्राणेन्द्रियेण यमराजधिष्ण्यं ( कृतान्तालयं ) गच्छति || ३ || रूपावलोकनमनाः रमणीयरूपे मुग्धः हतमतिः शलभः इयं सज्जातिपुष्पकलिका इति मस्था इव दीपाचिष पतित्वा अवलोकनवशेन समास्यमेति ॥ ४ ॥ वनेषु दूर्वा राशनसमृद्धवपुः विलासैः हरिणीभिः क्रीडन् अत्यन्तगेयवरदत्तमता . जो हाथी इच्छानुसार गमनसे मुखको प्राप्त होकर वनमें निवास करता है तथा वहां वृक्षोंके मनोहर कोमल पत्तोंको खाता है वह स्पर्शन इन्द्रियके वशमें होकर मनुष्योंके द्वारा की जानेवाली सवारी, अंकुश और बन्धन आदिको दुखको प्राप्त होता है । विशेषार्थ - हाथी जंगलमें रहता है। उसे पकड़नेके लिये मनुष्य गहरा गड्ढा खोदकर उसमें हथिनीकी मूर्ति बनाते हैं। इसे साक्षात् इथिनी समझता हुआ वह हाथी कामासक्त होकर उस गड्ढे में जा गिरता है। इस प्रकारसे वह सहजमें पकड़ लिया जाता है। अब वह सर्वथा पराधीन हो जाता है। इसीलिये मनुष्य उसके ऊपर सवारी करते हैं, अंकुशसे ताडन करते हैं, और बन्धनमें रखते हैं । यह सब दुख उसे एक मात्र स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत होनेसे ही सहना पडता है, अन्यथा वह इतना विशालकाय पशु साधारण मनुष्यके वशमें नहीं हो सकता था ॥ १ ॥ मछली अतिशय निर्मल एवं विशाल जल में स्वेच्छापूर्वक सुखसे रहती है और वहां निर्भय होकर चित्तको रमाती है। वह रसना इन्द्रियके वश रसोंमें गृद्धिको प्राप्त होकर अकारण ही यहां अतिशय दुखदायक मरणको प्राप्त होती है ॥ २ ॥ यहाँ अनेक वृक्षोंके फूलों के सुगंधसे जिसका शरीर सुगन्धित हुआ है, ऐसा बेचारा निर्बुद्ध भ्रमर कमलरूप घरमें रहता हुआ इन्द्रियसे गन्धमें आसक्त होकर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ३ ॥ रूपके देखनेकी इच्छा करनेवाला मूर्ख दुर्बुद्धि पतंग रमणीय रूपमें मूढ होकर दीपककी शिखाको 'यह उत्तम जाति पुष्पकी कलि है' ऐसा समझ करके ही मानो उसके ऊपर गिरता है और नेत्र इन्द्रियके वश यमके मुखको प्राप्त होता है- जलकर मर जाता है ॥ ४ ॥ जिस मृगका शरीर वन में दूर्वा के अंकुरों (घास ) १ स स्वेच्छावि । २ स 'सुखतो । ३ सयक्ष ४ स गुद्धो । ५ स धिष्ण्यां । ६ स त्रिशक्ति। ७स यमवर्ति ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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