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________________ २२ सुभाषित संदोहः [78 : ४१६ 78) द्रव्याणि पुण्यरहितस्य न सन्ति लोभात्सम्स्यस्य चेन तु भवन्त्यचलानि तानि । सन्ति स्थिराणि यदि तस्य न सौख्यदानि ध्यात्वेति शुद्धधिषणो न तनोति लोभम् ॥ १६ ॥ 79) चक्रेश केशवलायुधभूतितो ऽपि संतोषमुक्तमनुजस्य न तृप्तिरस्ति । तृप्तिं विना न सुखमित्यवगभ्य सम्यग्लोभग्रहस्य वशिनो न भवन्ति धीराः ॥ १७ ॥ 80) दुःखानि यानि ' नरकेष्यति दुःसहामि तिर्यक्षु यानि मनुजेष्वमरेषु यानि । सर्वाणि तानि मनुजस्य भवन्ति लोभादित्याकलय्य विनिहन्ति तमत्र धन्यः ॥ १८ ॥ 81) लोभं विधाय विधिना बहुधापि पुंसः संचिन्वतः क्षयमनित्यतया प्रयान्ति । व्याण्यवश्यमिति चेतसि संभिक कोभं त्यजन्ति सुधियो घुतमोहनीयाः ॥ १९ ॥ 82) तिष्ठन्तु बाघाम्बपुः सरार्थाः संवर्धिताः प्रसुरलोभैयशेन पुंस । कायो ऽपि नश्यति मिजो ऽयमिति प्रचिन्त्य लोभारिमुप्रमुपइन्ति विरुद्धतत्वम् ॥ २० ॥ ॥ इति लोभनिवारणविंशतिः ॥ ४ ॥ निःशेषलोकदनदाविधौ समर्थ निखिलतापकरं ज्वलन्तं लोमानलं समं नयन्ति ।। १५ ।। पुण्यरहितस्य लोभात् द्रव्याणि न सन्ति, अस्प सन्ति चेत् तानि तु अचलानि न भवन्ति, यदि तस्य स्थिराणि सोम्पदानि न सन्ति इति ध्यात्वा शुद्धधिषणः लोभं न तनोति ।। १६ ।। संतोषमुक्तमनुजस्य चक्रेशमेशबहलायुधभूतितः अपि तृप्तिः न अस्ति, तृप्ति विन्दा सुखं न इति सम्यक् अवगम्य धीराः लोभग्रहस्य वशिनो न भवन्ति ।। १७ ।। यानि नरकेषु अतिदुःसहानि दुःखानि यानि तिर्यक्षु मानि मनुजेषु यानि अमरेषु (सन्ति) तानि सर्वाणि मनुजस्य लोभात् भवन्ति इति आकलव्य अन धन्यः तं विनिहन्ति ॥ १८ ॥ लोभं विधाय बहुधा द्रव्याणि संचिन्वतः अपि पुंसः (तानि) विधिना अनित्यतया अवश्यं कयं प्रयान्ति इति चेतसि संनिरूप्य धुतमोहनीयाः सुधियः लोमं त्यजन्ति ॥ १९ ॥ प्रदुरलोभवशेन पुंसा संबंधिताः बाह्यधनधान्यपुरःसरार्थाः तिष्ठन्तु जयं निजः कामः अपि नश्यति इति प्रचिन्त्य ( सुधीः) उसे विरुद्धत्तस्त्वं लोभारिम् उपहन्ति ॥ २० ॥ ॥ इति लोभनिवारणविधातिः ॥ ४ ॥ न जलाने में समर्थ है तथा सब प्राणियोंको सन्तप्त करनेवाली है उसको विवेकी जीव ज्ञानरूप मेधसे उत्पन्न हुए सन्तोषरूप दिव्य जळके द्वारा शान्त करते हैं ॥ १५ ॥ जो प्राणी कोभके वश होकर धनको प्राप्त करना चाहता है वह यदि पुण्यहीन है तो प्रथम तो उसे वह धन इच्छानुसार प्राप्त ही नहीं होता है, फिर यदि वह प्राप्त भी हो गया तो वह उसके पास स्थिर नहीं रहता है, और यदि स्थिर भी रह गया तो वह चिन्ता यां रोगादिसे सहित होनेके कारण उसको सुख देनेवाला नहीं होता है; ऐसा विचार करके निर्मलबुद्धि मनुष्य उस लोभको विस्तृत नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ जो मनुष्य सन्तोषसे रहित है उसको चक्रवर्ती, नारायण और बलदेवकी विभूति से भी तृप्ति नहीं होती है, और जब तक तृप्ति (सन्तोष) नहीं होती है तब तक सुखकी सम्भावना नहीं है | इस बातको भले प्रकार जान करके विद्वान् मनुष्य उस लोमरूप पिशाचके वशमें नहीं होते हैं ॥ १७ ॥ जो असह्य दुख नरकोंमें हैं, जो दुख तियंचोंमें हैं, और जो दुख देनोंमें हैं वे सब दुख मनुष्यको लोभके कारणसे प्राप्त होते हैं; ऐसा निश्चय करके श्रेष्ठ मनुष्य यहाँ उस लोभको नष्ट करता है ॥ १८॥ जो मनुष्य लोभके वश होकर बहुत प्रकारसे धनका संचय करता है भाग्यवश उसका वह धन नश्वरस्वभाव होनेसे नष्ट हो जाता है, ऐसा मनमें विचार करके बुद्धिमान् मनुष्य मोहसे रहित होकर उस लोभका परित्याग करते हैं ॥ १९ ॥ मनुष्य तीव्र लोभके वश होकर जिन धन व धान्य आदि बाह्य पदार्थों को बढाता है वे तो दूर रहें, किन्तु मनुष्का यह अपना शरीर भी नाशको प्राप्त होता है; ऐसा विचार करके घिवेकी जीव विपरीत स्वभाववाले उस प्रबल लोमरूप शत्रुको नष्ट करता है ॥ २० ॥ इस प्रकार इन बीस श्लोकोंमें लोभके दूर करनेका कथन किया गया है ॥ ४ ॥ D १ स जानि । २ स मनुजेश्वरेषु । ३ स लोभे । ४ स प्रयाति । ५ स प्रमुखलोभ । ६ स पुंसः । ७ सom, इति इति लोभनिराकरणोपदेशः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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