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________________ 42:२–२१] २. कोपनिषेधैकविंशतिः 12) वैरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति रूपं विरूपयति निन्द्यमर्ति' तनोति । दौर्भाग्यमानयति शातयते च कीर्तिं रोषो ऽत्र रोगसरशो न हि शत्रुरस्ति ॥ २१ ॥ ॥ इति कोपनिषेधैकविंशतिः " ॥ २ ॥ विकल्पः ॥ २० ॥ अव रोप: वैरं विवर्धयति सख्यम् अपाकरोति रूपं विरूपयति निन्धमति तनोति दौर्भाग्यम् आनयति कीर्ति शातयते । हि अन्न रोषसदृशः शत्रुः न अस्ति ।। २१ ।। ॥ इति कोपनिषेधैकविमतिः ॥ २ ॥ - संसारमें क्रोध भावको बढाता है, मित्रताको नष्ट करता है, शरीरकी आकृतिको विकृत करता है, बुद्धिको मलिन करता है, पापको लाता है, और कीर्तिको नष्ट करता है। ठीक है यहां क्रोधके समान अहित करनेवाला और दूसरा कोई शत्रु नहीं है क्रोध ही सबसे भयानक शत्रु है । विशेषार्य - लोकमें जो 1. जिसका कुछ नष्ट करता है उसे वह शत्रु मान लेता और तदनुसारही वह उसके नष्ट करनेके उपायोंकी योजना भी करने लगता है । परन्तु यह कितनी अज्ञानता की बात है कि जो क्रोध उसका सबसे अधिक नष्ट कर रहा है उसे यह शत्रु नहीं मानता और न इसीलिये वह उसके नष्ट करनेका भी प्रयत्न करता है। इसी अभिप्रायको कत्रि वादित्रसिंह इस प्रकार प्रगट किया है " अपकुर्वति कोपवेत् किं न कोपाय कुप्यसि । त्रिस्यापवर्गस्य जीवितस्य च नाशिने ॥" अर्थात् हे भव्य ! यदि तुझे अपना अपकार करनेवाले ऊपर क्रोध आता है तो तू उस क्रोधके ऊपर ही क्रोध क्यों नहीं करता ? कारण कि वह तो तेरा सबसे अधिक अपकार करनेवाला है । वह तेरे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गको; मोक्ष पुरुषार्थको और यहां तक कि तेरे जीवितको भी नष्ट करनेवाला है। फिर भला इससे अधिक अपकारी और दुसरा कौन हो सकता है ? कोई नहीं [ क्ष. चू. २-४२. ] ॥। २१ ।। इस प्रकार इक्कीस लोकोंमें क्रोध के निषेधका कथन समाप्त हुआ || २ || प्रदेशः । करेति । २ सom रूपं वि स नियम ४ स तिमोतिः । ५ सont इति इति को निराकरणो
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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