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________________ १८१ 62 : २६-२१ ] २६. आप्तक्विारद्वाविंशतिः 661) पर्यालोच्य वमत्र स्थिरपरमधियस्तत्त्वतो बेहभाजः संत्यज्यैतान कुवेवास्त्रिविधमलभूतो वीर्घसंसारहेतून् । विध्वस्ताशेषदोषं जिनपतिमखिल प्राणिनामापदन्तं ये वन्दन्ते ऽनवयं मदनमवनुदं से लभन्ते सुखानि ॥ २० ॥ 662) दृष्टं ननेन्द्रमन्बधलयमुकुटतटीकोटिविलिष्टपुष्प भ्राम्यवनौषधोपैजिनपतिनुतये ह्यावरा जिनस्य । पावत तं प्रभूत प्रसभभवभयंभ्रंशि भक्त्या क्तचिसस्तैराप्तोक्तं विमुक्त्यै पवमपवमय व्यापा"माप्तमाप्तम् ॥ २१॥ विरहाः, स्नेहतः दुःखिनः च । ते वः विमुक्त्यै समयमनियमान् दातुं कथम् ईशाः ॥ १९ ॥ एवमत्र तत्त्वतः पर्याकोच्य ये स्थिरपरमधियः देहभाजः त्रिविधमलभुतः दीर्घसंसारहेतून एतान् कुदेवान् संत्यज्य विश्वस्ताग्रेषदोष मदनमदनुदम् अखिलप्राणिनाम् आपदन्तम् अनवद्यं जिनपति वदन्त, से सुखानि लभन्ते ।। २० ।। भक्त्यात्तचित: य: आदरात नम्रन्त्रमम्वरलषमुकुटवटीकोरिविषिलष्टपुष्पभ्राम्यद्भगौधघोषः जिनपतिनुतये प्रभूतप्रसभभवभयभ्रंशि पादतं दृष्टम् । अथ से: म्यापयाम् अपदम् आप्तोक्तम् आप्तं पदं विमुक्त्यै आप्तम् ॥ २१॥ मया एषां दोषाः वयनपटुसया द्वेषतः रागतः वाम उमताः । तिलोत्तमा अप्सरामें आसक्त हुआ है तो विष्णु सदा लक्ष्मीको वक्षस्थलमें धारण करता हुआ ग्वाल स्त्रियोंके साथ क्रोड़ा करता है और शिवने तो कामातुर होकर पार्वतीको अपने आधे शरीरमें हो धारण कर लिया है। इससे उनका रागान्ध होना निश्चित है। वे क्रोधी भी हैं, क्योंकि अनेक शत्रुओंका-त्रिपुर, नरकासुर एवं मुरासुर आदिका---उन्होंने घात किया है। इसके अतिरिक्त चूंकि वे गदा एवं त्रिशूल आदि आयुधोंको धारण | करते हैं अतएव वे निश्चित ही भयभीत एवं विद्वेषी प्रतीत होते हैं। इस प्रकार जो स्वयं रागी, द्वषी एवं कामो हैं वे अन्य मुमुक्षु जनके लिये शम-यमादिको प्रदान करके मोक्षमार्गमें कभी प्रवृत्त नहीं कर सकते हैं। इसलिये उनको देव समझना योग्य नहीं है । १९ ।। स्थिर एवं उत्कृष्ट बुद्धिके धारक जो प्राणी यहाँ उक्त प्रकारसे देव एवं कुदेवका वस्तुत: विचार करके तीन प्रकारके मलको धारण करनेवाले-द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म रूप तीन प्रकारके मलसे मलिन तथा अनन्त संसारके कारणभूत इन कुदेवोंको--शिव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, कात्तिकेय, इन्द्र और अग्नि आदिको---छोड़ देते हैं तथा रागादि समस्त दोषोंसे रहित, सब प्राणियोंके कष्टको दूर करनेवाले एवं कामके विजेता निर्दोष जिनेन्द्र देवकी वन्दना करते हैं वे यथार्थ सुखोंको प्राप्त करते हैं ॥ २० ॥ जिन भव्य जीवोंने भक्तिमें चित्त देकर जिनेन्द्रको नमस्कार करने में नम्रीभूत हुए इन्द्रके मन्द द शिथिल मुकुटतटके अग्रभागसे पृथक् हुए पुष्पोंके ऊपर घूमते हुए भ्रमरसमूहके गुंजारके साथ प्रचुर संसारके __ भयको बलपूर्वक नष्ट करनेवाले जिन भगवान्के चरणयुगलका विनयपूर्वक दर्शन किया है उन्होंने मुक्तिको प्राप्त करनेके लिये समस्त आपत्तियोंके हरनेवाले जिनोपदिष्ट आप्तके पदको ही पा लिया है, ऐसा समझना चाहिये ॥ २१ ॥ मैंने इन उपर्युक्त कुदेवोंके दोषोंको वचनकी निपुणता ( कवित्वशक्ति से, द्वषसे अथवा रागसे-जिनानुरागसे--नहीं दिखलाया है। किन्तु मेरा यह प्रयत्न यहाँ केवल सर्वज्ञ एवं वीतराग आप्तका बोध करानेके लिये है। इसका कारण यह है कि परके रहनेपर-रागादि दोषोंसे कलुषित कुदेवके विद्यमान होने १ स लोध्येव । २ स °मखिलं । ३ स 'पदं तं । ४ स पुष्यद्धा । ५ स नुतयो। ६ स ध्याहराम्य व्याहराब । ७ स भूतं । ८ स भयाभंशि। १ स °भ्रंसि भक्त्यात्त ।१० स व्यापदप्राप्त ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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