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________________ [663 : २६-२२ १८२ सुभाषितसंबोहः 663) नैषां दोषा मयोक्ता वचनपटुतया द्वषतो रागतो वा कि त्वेषो ऽत्र प्रयासो मम सकलविदं ज्ञातुमाप्तं विवोषम् । शक्तो बोधून चात्र त्रिभुवनहितकृविद्यमानः परत्र भानु!देति यावन्निखिलमपि तमो नावधूतं हि सावत् ॥ २२ ॥ इत्याप्त विचार द्वाविंशतिः ॥ २२ ॥ किंतु विदोषं सकलविदम् आप्तं ज्ञातुम् अत्र एष मम प्रयासः। परस्त्र विद्यमानः त्रिभुवनहितकृत अत्र बोर्बु न च शक्तः । यावत् निखिलम् अपि तमः न अवधूतं तावत् भानुः न उदेति ।। २२ ॥ इत्याप्तविचारताविशतिः ॥ २६ ।। पर तीनों लोकोंके समस्त प्राणियोंका हित करनेवाले यथार्थ देवका बोध नहीं हो सकता है । ठीक है-जव तक सूर्य समस्त अन्धकारको नष्ट नहीं कर देता है तब तक वह उदयको शप्त नहीं होता है ॥ २२ ॥ विशेषार्थ -यहाँ ग्रन्थकर्ता श्री अमितगति आचार्य यह बतलाते हैं कि मैंने यहाँपर जो देवस्वरूपसे माने जानेवाले ब्रह्मा व विष्णु आदिके कुछ दोषोंका निर्देश किया है वह न सो अपनी कवित्व शक्तिको प्रगट करनेके लिये किया है और न किसी राग-द्वेषके वश होकर ही किया है। इसका उद्देश्य केवल यही रहा कि उपर्युक्त दोषों और गुणोंको देखकर मुमुक्षु जीव यथार्य देवकी पहिचान कर सकें। उदाहरणके रूपमें जब रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है तब ही सूर्यका उदय देखा जाता है। इसी प्रकार अन्य ब्रह्मा आदिमें जो दोष देखे जाते हैं उन सबसे रहित हो जानेपर ही जीव यथार्थ आप्त ( मोक्षमार्गका प्रणेसा ) हो सकता है। इस प्रकार बाईस श्लोकोंमें आप्तका विचार किया। १ स नेते । २ स टु तथा । ३ स विद्यमाने, विद्यमानो । ४ स इत्याप्तयिवेचनम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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