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________________ [ २७. गुरुस्वरूपनिरूपणपविंशतिः ] 664) जिनेश्वरक्रमयुगभक्तिभाविता विलोकि तत्रिभुवनवस्तु विस्तराः । द्विषता (?) डिह गुणांश्चरन्ति ये नमामि तान् भवरिपुभित्तये * गुरून् ॥ १ ॥ 665 ) समुद्यतास्तपसि जिनेश्वरोबिसे वितन्वते निखिलहितानि निःस्पृहाः । सदा न ये मवनमदेरपाकृताः सुदुर्लभा जगति मुनोशिनो ऽत्र ते ॥ २ ॥ 666) वचांसि ये' शिवसुखानि तन्वते न कुर्वते स्वपरपरिग्रहम् । विजिता: सकलममत्व वर्णः श्रयामि तानमलपदाप्तये यतीन् ॥ ३ ॥ 667 ) न बान्धवस्वजनसुतप्रियादयो वितन्वते तमिह गुणं शरीरिणाम् । 10 विभित्तितो भवभयभूरिभूभूतां" मुनीश्वरा विवधाति यं कृपालयः १२ ॥ ४ ॥ 663) शरीरिण: 13 कुलगुणमार्गणावितो विबुध्य ये* विद्याति निर्मला बयाम् । विभोरको जननतुरन्त दुःखतो भजामि ताञ्जनकसमान् गुरून् सदा ॥ ५ ॥ जिनेश्वरक्रमयुगभक्तिभाविताः विलोकित त्रिभुवनवस्तुविस्तराः ये इह द्विषड्हतान् षट्गुणान् चरन्ति तान् गुरून् भवरिपुभित्तये नमामि ॥ १ ॥ ये जिनेश्वरोदिते तपसि समुखताः निःस्पृहाः निखिलहितानि वित्तन्यते ये सदा मदनमः न बघाकृताः, ते मुनीशिन्दः अत्र जगति सुदुर्लभाः ॥ २ ॥ ये सकलममत्वदूषणैः विवजिताः शिवसुखदानि वचांसि तन्वते, स्वपरपरि ग्रहग्रहं न कुर्वते तान् यतीन् ममलपदाप्तये श्रयामि ॥ ३ ॥ कृपालय मुनीषवराः भवभयमूरिभूभूतां विभितितः यं गुणं विदति इह बान्धवस्वजनसुतप्रियादयः शरीरिणां तं गुणं न वितन्वते ॥ ४ ॥ कुलगुणमार्गणादितः शरीरिण: विबुध्य ये 7 जो जिनेश्वरके चरणयुगलमें अनुराग रखते हैं, तीनों लोकोंकी वस्तुओंके विस्तारको देखते- जानते हैं और गुणका परिपालन करते हैं उन गुरुयोंको में संसाररूप शत्रुको नष्ट करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ जो मुनिराज जिन भगवान् के द्वारा प्ररूपित तपश्चरणमें उद्यत हैं, निःस्वार्थ होकर समस्त प्राणियोंका कल्याण करते हैं, तथा जो निरन्तर कामके मदसे तिरस्कृत नहीं किये जाते हैं - कामविकारसे सदा रहित होते हैं वे मुनिराज यहाँ संसार में अतिशय दुर्लभ हैं ॥ २ ॥ जो मोक्षसुखके देनेवाले वचनोंका विस्तार करते हैं-हितकारक वचन बोलते हैं, अभ्यन्तर व बाह्य दोनों प्रकारके परिग्रहरूप पिशाचको ग्रहण नहीं करते हैं, तथा समस्त राग-द्वेषरूप दोषोंसे दूर रहते हैं उन मुनियोंका में निर्मल पद ( मोक्ष ) के प्राप्त्यर्थं आश्रय लेता हूँ ॥३॥ मित्र, कुटुम्बी जन, पुत्र और प्रियतमा आदि यहाँ प्राणियों के उस उपकारको नहीं करते हैं जिसे कि दयालु मुनिराज संसारके भयरूप प्रचुर पर्वतोंके भेदनेसे करते हैं। अभिप्राय यह है कि मुनिजन अपने सदुपदेशके द्वारा प्राणियों को संसारके दुखरूप पर्वतके भेदनेमें प्रवृत्त करके जिस महान् उपकारको करते हैं उसको बन्धु-बान्धव आदि कभी भी नहीं कर सकते हैं। अतएव कुटुम्ब आदिके मोहको छोड़कर उन सद्गुरुओंकी उपासना करना चाहिये || ४ || जो संसारके दुःसह दुखसे भयभीत होकर कुल, गुणस्थान एवं मार्गणा आदिसे जीवोंको जान १ स विलोकिता, विलोकितस्त्रि २ स तन्त्र, चस्त for वस्तु । ३ स षट् हतान् षटहतान् । ४ सक्षिये, fभयो । ५ स नये । ६ स ये तिशिष । ७ स प्रकुर्वते । ८ स श्रयाणि । ९स वितन्वे । १० स विभिदितो, विभितो । ११ स भृतो । १२ स कृपालया । १३ ६ शरीरिणां । १४ स दिबुद्धये ३
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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