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________________ [१४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत् ] 343) यत्पाति हन्ति' जनयति रजस्तमः सत्त्वगुणयुतं विश्वम् । तद्धरिशंकरविषिवज्जयतु जगत्यां सदा कर्म ॥ १ ॥ 344) भविष्यता विधाता कालो नियतिः पुरस्कृतं कर्म । aur four स्वभावो भाग्यं देवस्य नामानि ॥ २ ॥ 345) खजनकं प्राणभूता संचितं पुरा कर्म । स्मरति पुनरिदानों तद्देयं मुनिभिः समाख्यातम् ॥ ३ ॥ 346) दुःखं सुखं च लभते यद्य ेन यतो यदा यथा यत्र । देवनियोगात्प्राध्यं तत्तेन ततस्तदा तथा तत्र ॥ ४ ॥ 347 ) यत्कर्म पुरा विहितं यातं' जीवस्य पाकमिह किंचित् । न तदन्यथा विधातुं कथमपि शक्रोऽपि शक्नोति ॥ ५ ॥ यत् रजस्तमः सत्वगुणमुखं विश्वं जनयति पाति हन्ति तत् कर्म हरिशंकर विधिवत् जगत्यां सदा जयतु ॥ १ ॥ भवि तम्यता, विधाता, कालः, नियतिः पुराकृतं कर्म वेधाः, विधि: स्वभाव:, भाग्यम् [ इति ] देवस्य नामानि ॥ २ ॥ मत् सौम्यदुःखजनकं प्राणभृता संचितं पुरा कर्म पुनः इदानों स्मरति तत् मुनिभिः दैवं समाख्यातम् ॥ ३ ॥ यत् येन यतः यवा यथा यत्र दुःखं सुखं च लभते तत् तेन ततः तदा तथा तत्र दैवनियोगात् प्राप्यम् ॥ ४ ॥ यत् कर्म पुरा विहितम् इह् जीवस्य किचित् पार्क यातं तद् अन्यथा विधातुं शक्रः अपि कथमपि न शक्नोति ॥ ५ ॥ धाता तावत् त्रिलोकस्य ललाम जो रजोगुण तमोगुण और सतोगुणसे युक्त विश्वकी विष्णुके समान रक्षा करता है, महादेवके समान विनाश करता और ब्रह्माके समान उत्पत्ति करता है वह कर्म अर्थात् देव जगतमें सदा जयवन्त हो ॥ १ ॥ विशेषार्थं - सांख्य दर्शनमें जगत्को त्रिगुणात्मक कहा है । रजोगुणका कार्य उत्पाद है, तमोगुणका कार्य विनाश है और सतोगुणका कार्य स्थिति है। यह जैनोंका उत्पाद व्यय धौव्य है। देव भी ये तीन कार्य करता है। यह मारता भी है, जिलाता भी है। बनाता भी है। बिगाड़ता भी है। समस्त संसार हो दैवका खेल है। यहाँ उसीकी तूती बोलती है इस लिये उसकी जयकामना की है ॥ १॥ भवितव्यता, विधाता, काल, निर्यात, पूर्वोपाजित कर्म, वेधा, विधि, स्वभाव और भाग्य, ये सब देवके नामान्तर है ||२|| पूर्वमें प्राणीने जो सुख दुःख देने वाले कर्म संचित किये हैं जिन्हें इस समय स्मरण करता है उसे मुनिगण दैत्र कहते हैं ||३|| जिस जीवने जिस तरहसे जब जहाँ जो दुःख सुख प्राप्त करना होता है उस जीवको उस तरह से उस स्थानमें; उस कालमें, वह दुःख सुख देवके नियोगसे अवश्य प्राप्त होता है ॥४॥ पूर्वकालमें जीवने जो अच्छा या बुरा कर्म किया और इस समय वह पक कर फल देनेके सन्मुख हुआ तो उसको किचित् भी अन्यथा करने में इन्द्र भी किसी तरह समर्थ नहीं है । अर्थात् किये हुए हुए कर्मका फल जीवको अवश्य भोगना होता है । कोई दूसरा उसमें कुछ भी हेरफेर नहीं कर सकता ||५|| देव मनुष्यको तीनों लोकोंका १ स om. हन्ति । रस संकरि" । ३ स विजयतु for जयतु । ४ स विधि । ५ सत्यागं for भाग्यं । ६ स मुनिभिरारूपातं । ७ स लम्भेद्यद्य ेन, लभतेद्यज्येन लभ्येधद्य ेन लभ्यद्य ेन, लभेययेन । ८ स तत्र । ९ सom. यातं । १० स्र सक्तो for शक्रो ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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