SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 353 : १४-११] १४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत् 348) धाता जनयति तावल्ललामभूतं' नरं त्रिलोकस्य । यदि पुनरपि गतबुद्धिर्नाशयति किमस्य तत्कृत्यम् ॥ ६॥ 349) निहतं यस्य ममखोनं तमः संतिष्ठते. दिगन्ते ऽपि । . उपयाति सोऽपि नाशं नापदि कि तं विधिः स्पृशति ।। ७॥ 350: विपरीते सति पातरि साधनमफलं प्रजायते पुंसाम्। शशतकरोऽपि भानुनिपतति गगनावनबसम्मः ॥८॥ 351) यत्कुपनपि नित्यं कृत्यं पुरुषो न पाश्छितं लभते । तत्रायशो विधातुर्मुमयो न वदन्ति देहभूतः ॥ ९ ॥ 352) बान्धवमध्ये ऽपि जनो दुःखानि समेति पापपाकेन । पुण्येन वैरिसवनं यातो ऽपि न मुख्यते सौल्यैः ॥१०॥ 153) पुरुषस्य भाग्यसमये पतितो वो ऽपि जायते कुसुमम् । कुसुममपि भाग्यविरहे बनावपि निष्ठुरं भवति ॥ ११ ॥ भूते नरं जनयति । यदि गतबुद्धिः पुनरपि नाशयसि, किम् अस्य तत् कृत्यम् ॥ ६ ॥ यस्य मयूख. निहतं समः बिगन्ते ऽपि न संतिष्ठते, सो ऽपि नाशम् उपयाति । विषि: आपदि तं किन स्पृशति ॥ ७॥ पातरि विपरीते सति पुसा साधनम् वफलं प्रजायते । भानुः दशशतकरः अपि बनवलम्ब: गगमात् निपतति ॥ ८॥ नित्यं कृत्यं कुर्वन् अपि पुरुषः यत् बाशित न लभते तत्र मुनयः विषातुः अयशः वदन्ति । देहभृतः न ॥ ९॥ जनः पापपाकेन गन्तवमध्ये ऽपि दुलानि समेति । वैरिसदन मातः अपि पुष्पेन सोल्यैः न मुच्यते ।। १० । पुषस्य माग्यसमये पतितः वचः अपि कुसुमम् जायते। भाग्य प्रधान बनाकर पैदा करता है। यदि पुनः उसको मति बदलती है तो नष्ट कर डालता है। यह देवका काम है। इसमें किसीको क्या कहना ।। ६॥ जिस सूर्यको किरणोसे भगाया हुमा अन्धकार विशाम्तमें भी नहीं व्हरता अर्थात् जब सूर्यका उदय होता है सब दिशाएं उसके तेजसे प्रकाशित होती हैं किन्तु वह सूर्य भी दिन तुलने पर पश्चिममें जाकर अस्त हो जाता है। क्या विपत्तिके समय दैव उसके साथ नहीं होता ? अवश्य होता है। यही तो दैवका खेल है ॥ ७॥ जब माग्य प्रतिकूल होता है तो मनुष्योंके सब साधन निष्फल हो जाते है। देखो, सूर्यके हजार हाय होते हैं फिर भी भाग्य प्रतिकूल होने पर सन्ध्याके समय वह बिना सहारेके आकाशसे गिर जाता है। विशेषार्थ-सूर्यको सहसकर कहते हैं । करका अर्थ किरण भी है और हाथ भी है। एक हजार हाय वाला भी सूर्य आकाशसे गिरकर दूब जाता है। यह भाग्यको विपरीसताका खेल है। जब तक भाग्य अनुकूल रहता है मनुष्य जो करता है सब सफल होता है। प्रतिकूल होने पर सारे उपाय व्यर्ष हो जाते हैं ।।८।। पुरुष नित्य करने योग्य कामको करते हुए भी जो इच्छित फलको प्राप्त नहीं करता, उसमें मुनिगण देवको हो दोष देते हैं, पुरुषको नहीं । अर्थात् पुरुषके प्रयत्न करने पर भी जो कार्य सिद्धि नहीं होती उसमें पुरुषका दोष नहीं है उसके भाग्यका हो दोष है ऐसा मुनिगण कहते हैं ॥९॥ पापकर्मके उदयसे मनुष्य बन्धु-बांधवोके मध्यमें रहते हुए भी दुःख भोगता है। और पुण्य कर्मके उदयसे शत्रुके घरमें रह कर भी सुख भोगता है ।। १० । जब १ स भूरं for भूतं । २ स कथमपिः मतबुधिर्नाशयति किमस्य तत्कृतं । ३ स निहितं यस्य मयूखन तमः संति पृते. दिगतेपि शक्तोपि शक्ताति । ४ स निहित । १ स उपजाति । ६ स सर । ७ स न्यकुर्वन्न । ८ स for न । ९ स वा । १० स भाग्यहीने । मु. म. १३
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy