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________________ १०३ 385 : १५-११] १५. जठरनिरूपणपविशतिः 381) यदि भवति जठरपिठरो नो मानविनाशिका शरोरभृताम् । कः कस्य तवा वीनं जल्पति मानापहारेण ॥ ७॥ _382) गायति नृत्यति वल्गति धावति पुरतो म्पत्य वेगेन । किं किं न करोति पुमानुवरगृह पवनवशीभूतः ॥८॥ 383) जोवान्निहन्स्यसत्यं जल्पति बहुषा परस्वमपहरति । यवकृत्यं तदपि जनो जठराम लसापितस्तनुते ॥९॥ 384) तिगतिमतिरतिलकमीलता लसन्ति तमुषारिणां तावत् । माकजाठरववाग्निनं ज्वलति शरीरकान्तारे ॥१०॥ '385) संसारतरणवको विषयविरतो अरावितों ऽप्यसुमान् । 'गर्वोद्ग्रोवं पश्यति सबनमुखं अठरनृपगदितः ।। ११ ॥ पीरनं न वितनोति ।। ६ ।। शरीरभृतां मानविनाशिका जठरपिठरी यदि नो भवति, सवा कस्य मानापहारेण क: दोन जल्पति ॥ ७ ॥ उदरगृहपवनवशीभूतः पुमान् नपस्य पुरतः गायति, नृत्यति, बलाति वेगेन धावति । किं किं न करोति ।। ८ ।। जीवान् निहन्ति । असरयं जल्पति । बहुधा परस्वम् अपहरति । जठरानलतापितः जनः यत् अकृत्यं तदपि तनुते ॥९॥ यापत् अठरववाग्निः शरीरकान्सारे न ज्वलति वावत् तनुषारिणां पतिमतिमतिरतिलक्ष्मीलताः लसन्ति ।। १० ॥ संसारतरणदसः विषयविरक्तः परादितः अपि असुमान जठरनुपादितः सघनमुखं गोपीवं पश्यति ॥ ११॥ तनुमाम् जठ आदि करना पड़ता है ॥ ६ ॥ यदि यह पेटरूपी पिटारी प्राणियोंके मानको नष्ट करनेवाली न होती तो कोन अपना मान खोकर किसके सामने दीन-वचन बोलता। विशेषार्थ-मनुष्य इस पेटके लिये ही अपना मान स्यागकर दूसरोंके सामने दोन बनता है। यदि पेट न होता सो कोन अपना मान खोना पसन्द करता ॥७॥ इस पेटरूपी पिशाचके वशमें होकर मनुष्य राजाके सामने वेगसे गाता है, नाचता है, कूदसा है, दौड़ता है, यह क्या-क्या नहीं करता ॥ ८॥ इतना ही नहीं, किन्तु पेटको मागसे संतप्त मनुष्य जो काम नहीं ही करने योग्य है वे काम भी करता है। वह पेटके लिये जीवोंका धात करता है। बहुषा सूठ बोलता है और पराया धन हरता है। विशेषार्थ--राजाके सामने गाना-नाचना आदि काम उतने बुरे नहीं हैं उनमें दूसरोंका बुरा नहीं होता। कितु हिंसा करना, मूठ बोलना, चोरी करना तो ऐसे कार्य हैं जो किसीको नहीं करने चाहिये । किन्तु पेटके लिये मनुष्य ये सब न करने योग्य काम भी करता है ॥ ९॥ प्राणियोंको कान्ति, गति, मति, रति और लक्ष्मीरूपो लता तभी तक शोभायुक्त रहती है जब तक शरीररूपी वनमें उवरस्पी आग नहीं जलती। विशेषार्थ जैसे ही मनुष्यको भूख न मिटनेसे उदराग्नि प्रज्वलित होती है उसका सब राग-रंग समाप्त हो जाता है ॥ १०॥ जो व्यक्ति संसार समुद्रको पार करनेमें चतुर होते हैं, विषयोंसे विरक्त रहते हैं और वृद्धावस्थासे पीड़ित होते हैं उनको भी जब पेटरूपी राजाका हुकुम होता है तब वे भी गर्षसे गर्दन उठाये धनिकोंके मुखको ओर भाशाभरी दृष्टिसे ताकते हैं । विशेषार्थ-साधारण गृहस्थोंको तो बात हो क्या, संसारसे विरक्त साधु जनोंको भी मूखसे सताये जाने पर धनिकोंके मुखको ओर देखना पड़ता है ॥ ११॥ १ स विनाशका। २ स वलाति, जल्पति for बल्गति। ३ स पुरो, पुरुषो; पुस्तो। ४ स "पहलवनवशीभूतः, ग्रहपीडितो लोके । ५ स अपिहरति । ६ स जठरानिल° ! ७ त ज्वल्यति । ८१ जरादिते । ९ स गर्बोप्येवं ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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