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[437 : १७-१२
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सुभाषितसंबोहः 437) यच्चन्दनसंभवो ऽपि वहनो वाहारमकः सर्वदा
संपन्नोऽपि समुद्रपारिणि यथा प्राणान्तको इन्दभिः'। दिव्याहारसमुवभवो ऽपि भवति ख्याधिर्यथा बाधक
स्तनवदुःखकरः खलस्त नुमतो जातः कुले ऽप्युत्तमे ॥ १२ ।। 438) लत्रं जन्म यतो यतः पृथगुणा जीवन्ति यत्राश्रिता
ये तत्रापि जने भने फलपति प्लोर्ष पुलिन्दा इव । निस्त्रिशा वितरम्ति घूतमतयः शश्वत्खलाः पापिनस्ते मुन्नन्ति कर्ष विचाररहिता जीवन्तमन्यं जनम् ॥ १३ ॥
विनयवान्, मिथ्यावधिः, दुष्टयो:, विषमयः, दुर्जनः अमृतभर्मणा दुःखाय कृतः [इति ] मन्ये ।। ११॥ यद्वत् चन्दनसंभवः अपि दहनः सर्वदा दाहात्मकः, यथा समुद्रवारिणि संपन्नः अपि दुन्दुभिः प्राणान्तकः, यथा विव्याहारसमुद्भवः अपि व्याधिः बाधकः भवति, तद्वत् उत्तमे कुले अपि जातः खलः तनुमतां दुःखकरः ॥ १२॥ यतः अन्म लब्ध; यतः पृषुगुणाः, यत्र आश्रिताः जीवन्ति, तत्रापि फलवति बने पुलिन्दाः इव ये धूतमतयः निस्त्रियाः पापिनः खला: जने शश्वत् प्लोषं वितरन्ति
गिरगिट लाल आदि अनेक रूपोंको धारण करता है उसी प्रकार दुर्जन भी अनेक रूपोंको धारण करता हैधोखा देनेके लिये अनेक आकारको ग्रहण करता है, तथा जिस प्रकार सपं कुटिल गतिसे चलता है उसी प्रकार दुर्जन भी कुटिल चाल चलता है-कपटपूर्ण व्यवहार करता है। इस प्रकारसे वह दुर्जन मनुष्य चूंकि अनेक दोषोंसे सहित होकर दूसरोंको अकारण ही कष्ट दिया करता है अतएव उसके संसर्गसे सदा बचना चाहिये ॥१०॥ दुष्ट बुद्धिको धारण करनेवाला दुर्जन मनुष्य दूरसे ही आँखोंमें पानी भरकर खड़ा होता हुआ स्वागत करता है, गाढ़ आलिंगन करता है, आषा आसन देता है, प्रसन्नमुख होकर मधुर भाषण करता है, मनमें वंचनाका भाव रखकर वाह्य में नम्रता दिखलाता है, तया मर्यादाका उल्लंघन करता है। इस विश्वरूप दुर्जनको ब्रह्मदेवने मानों दूसरे प्राणियोंको दुःख देने के लिए ही उत्पन्न किया है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥ ११॥ जिस प्रकार चन्दनसे उत्पन्न हुई भी अग्नि निरन्तर दाहस्वरूप हो होती है, समुद्रके जलमें प्राप्त भी विष जैसे प्राणघातक होता है, तथा दिग्य भोजनसे उत्पन्न भी रोग जैसे कष्टप्रद होता है। वैसे ही उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ दुष्ट पुरुष प्राणियों को दुखकारक होता है ॥ १२ ॥ विशेषार्थ-यद्यपि चन्दनका वृक्ष स्वभावसे शीतल होता है, परन्तु उससे उत्पन्न हुई अग्नि तद्गत शीतलताको छोड़कर दाहक स्वरूपको धारण करती है, इसी प्रकार विष यद्यपि समुद्रके शीतल जलमें-जिसे कि दूसरे शब्दसे जीवन भी कहा जाता है-उत्पन्न होकर भी बैसे प्राणनाशक होता है, तथा जिस प्रकार दिव्य ( स्वास्थ्यप्रद ) भोजनसे भी उत्पन्न हुआ रोग अपने दिव्य स्वरूपको छोड़कर अस्वास्थ्यप्रद एवं कष्टदायक होता है, उसी प्रकार उत्तम कुलमें भी उत्पन्न हुआ दुष्ट मनुष्य यदि कुल गत उत्तमताको छोड़कर नीच स्वभावको प्राप्त होता हुआ दूसरोंको दुख देता है तो इसमें कुछ भो आश्चर्य नहीं है॥१२॥ जिस प्रकार भील जिस वनमें जन्म लेते हैं, जिससे महागुणोंको ( आजीविका आदिको ) प्राप्त होते हैं तथा जिसका आश्रय पाकर जीवित भी रहते हैं उसी फलवाले बनमें निर्दय होकर आग लगा देते हैं; उसी प्रकार जो अविवेकी पापी दुष्ट जिससे जन्म लेते हैं, जिससे उत्तम गुणोंको प्राप्त
१ सदुंदुभिः, मुण्डुभिः । २ सप्लोषा । ३ स पुलोंद्रा, पुलिंदा ।