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439 : १७–१४ ]
१७. दुर्जन निरूपण चतुविशतिः
439 ) यः सावित मन्त्र गोवरमतिक्रान्तो द्विजिह्वाननः क्रुद्धो रक्तविलोचनो ऽसिततमो मुखत्यवाच्यं विषम्' । रौद्रो दृष्टिविषो विभीषितजनो रन्ध्रावलोकोद्यत: ४ कस्तं बुनपन्नगं कुटिलगं शक्नोति कर्तुं वशम् ॥ १४ ॥
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विषाररहिताः ते जीवन्तम् अन्यं जनं कथं मुचन्ति ॥ १३ ॥ यः सादितमन्त्र गोचरम् अतिक्रान्तः, द्विजिह्वाननः कुखः, रक्तविलोचनः, असिततमः अवाच्यं विषं मुञ्चति, रौद्र, विभीषितजन, रन्धाव लोकोद्यतः दृष्टिविषः तं कुटिलगं दुर्जनपद्मकः वशं कर्तुं शक्नोति ।। १४ ।। पयः पिवन् अपि पन्नगः निषु तदिषः नो संपद्यते । पयोमधुघटः सिक्तः अपि
करते हैं तथा जिसका सहारा पाकर जीवित रहते हैं उस उपकारी मनुष्यको भी जब वे योग्य-अयोग्यका विचार छोड़कर निरन्तर सन्तप्त करते हैं तब भला वे दूसरे किसी मनुष्यको कैसे जीवित छोड़ सकते हैं ? नहीं छोड़ सकते हैं । अभिप्राय यह कि दुष्ट मनुष्य का स्वभाव हो ऐसा होता है कि वह अन्य मनुष्योंकी तो बात क्या, किन्तु अपने उपकारीका भी उपकार नहीं मानता और उसे अनेक प्रकारसे कष्ट दिया करता है । अतएव उससे किसी प्रकार भलाईकी आशा करना व्यर्थ है ॥ १३ ॥ जो सज्जनोंके द्वारा उपदिष्ट योग्य शिक्षा-वचनका उल्लंघन करता है, दो जीभोंसे संयुक्त मुखको धारता है, क्रोधयुक्त है, लाल नेत्रोंसे सहित है, अतिशय काला है, विषके समान न बोलनेके योग्य वचनको बोलता है, भयको उत्पन्न करनेवाला है, दृष्टिमें विषको धारण करता है, प्राणियोंको भयभीत करता है, और छिद्रके देखनेमें उद्यत है; ऐसे उस कुटिल गतिवाले दुर्जनरूपी सर्पको वशमें करनेके लिये मला कौन समर्थ है ? कोई समर्थ नहीं है । १४ ॥ विशेषार्थ - दुर्जनका स्वमा ठीक सर्प समान होता है। कारण कि जैसे दुष्ट सर्प योग्य रीतिसे उच्चारित मन्त्रका विषय नहीं होता है-उसके वश नहीं होता है वैसे हो दुर्जन भी सज्जन मन्त्रका विषय नहीं होता हैवह उनकी योग्य शिक्षाको नहीं मानता है, जिसप्रकार के मुखमें दो जिह्वायें होती हैं उसी प्रकार दुर्जनके भी मुखमें दो जिह्वायें होती हैं वह अपने वंचनके ऊपर स्थिर नहीं रहकर कभी कुछ कहता है और कमी कुछ, सर्प जैसे क्रोधित होता है वैसे ही दुर्जन भी क्रोधित होता है, क्रोधसे लाल नेत्र जैसे सर्पके होते हैं वैसे ही
पुरुषोंके द्वारा कहे गये
अतिशय काला होता है - हृदयमें वहाँ दुर्जन भी मुहसे विषको उगभयानक होता है वैसे ही वह दुर्जन
वे दुजनके भी होते हैं, सपं यदि अतिशय काला होता है तो वह दुर्जन भी अतिशय मलिनताको धारण करता है, सर्प जहाँ मुहसे विषको उगलता है लता है - विषके समान भयानक कठोर वचन बोलता है, देखने में जेसे सर्प भी भयानक होता है, सर्पको दृष्टिमें यदि प्राणघातक विष विद्यमान रहता है तो वह दुर्जनकी भो दृष्टिमें विद्यमान रहता है— उसकी दृष्टि प्राणियोंको विधके समान भयको उत्पन्न करनेवाली होती है, मनुष्योंके लिये जैसे सपंको देखकर भय उत्पन्न होता है वैसे ही उन्हें दुर्जनको भी देखकर भय उत्पन्न होता है, तथा जिस प्रकार सर्प छिद्र (बिल) के देखने में उद्यत होता है उसी प्रकार दुर्जन भी छिद्रके देखने में दूसरोंके दोषोंके देखने में- उद्यत होता है । इस प्रकार दुर्जन जब कि सपंके समान भयानक एवं कष्टदायक है तब विवेकी जनोंको उससे सदा दूर ही रहना चाहिये ||१४|| जिस प्रकार दूधको पीकर भी सर्प कभी विषसे रहित नहीं होता है,
१ सहसा
। २ सदाच्या 'वाच स विपं । ४ स लोकोदितः,
"लोक्योद्यत ।
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