SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ सुभाषितसंदोहः [440 : १७-१५ ___440) नो निधू तविषः' पिवन्नपि पयः संपद्यते पानगो निम्बागः कटुतां पयोमधुघट सिक्तो ऽपि नों* मुश्चति । नो शोरैरपि सर्वका विलिखित धान्यं वदात्यूषरं' नवं मुञ्चति वक्रता खलजनः संसेवितोऽप्युत्तमः ।। १५ ।। 441) वैरं यः कुरुते निमित्सरहितो मिथ्यावधो भाषते नीयोक्स वचनं शृणोति सहते स्तोति स्वमन्यं जनम् । नित्यं निन्वति' गर्वितो ऽभिभवति स्पर्धा तनोत्पूजिता___ मेवं दुर्जनमस्ताराषिषर्ण सन्सो वदम्पङ्गिनम् ॥ १६ ॥ 442) मानोः शीतमतिग्मगोरहि"मता शृङ्गात्पयो धेनुतः पीयूवं विषतो ऽमृताहिषलता शुक्लारवमङ्गारतः। बलारि ततो मल: सुरसर्ज निम्बाव भवेज्जातु चि न्नो वाक्यं महितं सतां हतमतेस्त्पयते दुर्जनात् ॥ १७॥ निम्बागः फटुतां नो मुञ्चति । सीरैः सर्वदा विलिखितम् अपि कषरं धान्य नो ददाति । एवम् उत्तमजनैः संसेवितः अपि खलजनः वक्रतां न मुञ्चति ।। १५ ॥ यः निमित्तरहितः वैरं कुरुते, मिच्या बचः भाषते, नीचोक्तं वचने शृणोति, सहते, स्वं स्तीति, मन्यं जनं नित्यं निन्नति, गर्वितः अभिभवति, ऊजिता स्पर्धा तनोति । सन्तः अस्तशुदधिषणम् मशिन दुर्जनम् एवं वदन्ति ॥ १९ ।। आतुचित् भानोः शीतं, अतिग्मगोः अहिमता, धेनवः अङ्गात् पयः, विषतः पीयूषम्, अमृतात् विषलता अङ्गारतः शुक्लत्वं, वह्नः वारि, ततः अनलः, निम्बात् सुरसजं भवेत् । परं हतमतेः दुर्जनात् सतां महितं वाक्यं नो उत्पचते जिस प्रकार दूध और शहद के घड़ोंसे सोचा गया भी नीमका वृक्ष कडुवेपनको नहीं छोड़ता है, तथा जिस प्रकार हलोंके द्वारा जोती गई भी कसर भूमि कभी अनाजको नहीं देती है; उसी प्रकार सज्जन पुरुषोंके समागममें । रहकर भी दुर्जन कभी अपनी कुटिलताको नहीं छोड़ता ।। १५ ॥ विशेषार्थ-कितने ही भोले-भाले सज्जनोंका यह विश्वास होता है कि यदि दुर्जन मनुष्यको अपने समागममें रखा जाय तो वह अपनी दुष्टताको छोड़कर सज्जन बन सकता है। ऐसे भोले प्राणियोंको लक्ष्यमें रखकर यहाँ यह बसलाया है कि जैसे सर्प दूधको पो करके भी कभी अपने विषको नहीं छोड़ता है, जैसे दूध आदि मधुर द्रव द्रव्योंसे सींचा गया भी नीम कमी कडवेपनको नहीं छोड़ता है, तथा जैसे अच्छी तरहसे जोती गई भी ऊसर भूमि अपने अनुत्पादन स्वभावको छोड़कर कभी अनाजको नहीं उत्पन्न करती है वैसे ही सज्जनोंके साथ रह करके भी दुर्जन अपनी दुष्टताको छोड़कर कभी सज्जन नहीं बन सकता है। इसीलिये तो यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि 'नीम न मोय होय खाये गुड़ पीसे' | तात्पर्य यह है कि जिसका जैसा स्वमाव होता है वह कभी छूटता नहीं है । अतएव हमारे साथ रहनेसे दुर्जन अपनी दुष्टताको छोड़ देगा, इस उत्तम विचारसे भो कभी सज्जन पुरुषोंको दुर्जनको संगति नहीं करनी चाहिये ।। १५ ॥ जो प्राणो बिना किसी कारणके दूसरेसे वैर करसा है, असत्य वचन बोलता है, नीच पुरुषोंके द्वारा कहे गये वचनको सुनता व सहन करता है, अपनी प्रशंसा करता है, दूसरे जनकी सदा निन्दा करता है, अभिमानको प्राप्त होकर दूसरोंका तिरस्कार करता है, और अन्यके वैभवको देखकर अत्यन्त ईर्ष्या करता है; उस दुष्टवुद्धि प्राणीको सज्जन मनुष्य दुर्जन बतलाते हैं ।। १६ ॥ कदाचित् सूर्य शीतल हो जाय, १स "विर्ष । २ स यथ for पयः । ३ स निम्बाङ्गः। ४ स न । ५ स विलषितं, विलसितं । ६ स "त्यूषरे । ७ स संसेव्यते । ८ स हसते । ९ स मंदति, नंदवि । १० स त्यगिनां। ११ स तिमगोवदिता, हितता । १२ स त्पयो ऽधेनुतः । १३ स ऽनिलः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy