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________________ 415 : १७२०] १७. दुर्जननिरूपणचतुविशतिः 443) सत्या योनि' रुजं वदन्ति यमिनों दम्भ शुचे तंतां लज्जालोर्जडतां पटोर्मुखरतां तेजस्विनो गर्वताम् । शान्तस्या क्षमतामृजोरमतितां धर्मायिनो मूर्खतामित्येवं गुणिनां गुणास्त्रिभुवने नो' सूषिता दुर्जनेः ॥ १८ ॥ 444) प्रत्युत्थाति समेति नौति' नमति प्रह्लावते सेवते भुले भोजयते धिनोति वचनैर्गृह्णाति ते पुनः । अङ्गं श्लिष्यति संतनोति वदनं विस्फारिताप्रेक्षणं चित्तारोपितवक्रिमा "नुकुषले कृत्यं यदिष्टं खलः ॥ १९ ॥ 445) सर्वोद्वेगविचक्षणः प्रचुरा मुञ्चन्नवाच्यं विषं प्राणाकर्ष पदोपदेशकुटिलस्वान्तो द्विजिह्नान्वितः । भीमभ्रान्तविलोचनो ऽसमगतिः शश्वद्दयार्वाजतछिद्रान्वेषणतत्परो भुजगवद्वय बुधैर्युर्जनः ॥ २० ॥ १२३ मनुष्य कभी सज्जनके समान मधुर ॥ १७ ॥ दुर्जनाः समाः योनिराजं यमिनः दम्भं, शुर्यः धूर्तता, लज्जालोः जडतो, पटोः मुखरतां, तेजस्विनां गवतां, शान्तस्य अक्षमताम् ऋजः अमतितां धर्मार्थिनः मूर्खता वदन्ति । इत्येवं त्रिभुवने दुर्जनैः गुणिनां [के ] गुणाः नो दूषिताः ॥ १८ ॥ चित्तारोपितवक्रिमा खलः प्रत्युत्पाति, समेति, नौति, प्रह्लादते, सेवसे, भुङ्क्ते, भोजयते, बचनैः चिनोति गृह्णाति पुनः दत्ते, अगं दिलण्यति वदनं विस्फारिताप्रेक्षणं संतनोति । यत् इष्टं कृत्यं तदर्थम् अनुकुस्ते ।। १९ ।। सर्वोद्वेगविचक्षणः चन्द्रमा उष्ण हो जाय, गायके सींगसे दूध निकलने लग जाय, विषसे अमृत हो जाय, अमृतसे विषबेल उत्पन्न हो जाय, अंगारसे श्वेतता भाविभूत हो जाय, अंगार जल करके श्वेत बन जाय, अग्निसे जल प्रगट हो जाय, जलसे अग्नि उत्पन्न हो जाय, और कदाचित् नीमसे सुस्वादु रस भले हो प्रगट हो जाय; परन्तु दुष्टबुद्धि दुर्जनसे कभी सज्जन पुरुषोंको प्रशस्त वाक्य नहीं उपलब्ध हो सकता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सूर्य आदि कभी शीतलता आदिको नहीं प्राप्त हो सकते हैं उसीप्रकार दुर्जन भाषी भी नहीं हो सकता है ॥ १७ ॥ दुर्जन मनुष्य सत्ती (शोलवती) स्त्रीके योनिका रोग, व्रती जनके कपट, सदाचारीके धूर्तता, लज्जायुक्त मनुष्यके मूचंता, चतुर वक्ता के वाचालता, पराक्रमी जनोंके अभिमानता, शान्त (सहनशील) पुरुषके दुर्बलता, सरल (निष्कपट) मनुष्यके बुद्धिहीनता और धर्माभिलाषी जनके मूर्खता बतलाते हैं । इस प्रकारसे दोनों लोकोंमें गुणो जनोंके ऐसे कौनसे गुण शेष हैं जिन्हें कि दुर्जन मनुष्य दोषयुक्त न बतलाते हों ? अर्थात् वे गुणी जनोंके सबही गुणोंको सदोष बतलाया करते हैं ॥ १८ ॥ दुर्जन मनुष्य दूसरोंको देखकर उठ खड़ा होता है, आगे बढ़कर स्वागत करता है, स्तुति करता है, नमस्कार करता है, आनन्द प्रकट करता है, सेवा करता है, भोजन करता व कराता है, वचनों के द्वारा प्रसन्न करता है, ग्रहण करता है, बान देता है, शरीरका आलिंगन करता है, तथा आँखों में पानी भरकर उन्हें फाड़ता हुआ सुखसे हर्ष प्रकट करता है । इस प्रकार मन में कुटिलताको धारण करके दुष्ट पुरुष अपनेको जो कार्य अभीष्ट है उसीके लिये सब करता है ॥ १९ ॥ जो दुर्जन सर्पके समान समस्त प्राणियोंको उद्विग्न करनेमें चतुर है, अतिशय कोधी है, विषके १ स येनि, सत्या (?) यो निरुजं । २ स यमनो, मिनं । ३ स दंभे । ४ स "रमिततां । ५ स गुणं । ६ सना | ७ स प्रत्युद्धाति । ८ स स्तौति । ९ स विस्कारिताईक्षणां । १० स "वक्रिमी, चितांगेपिचक्रिमान । ११ स जनः for चलः । १२ स °क्षणाः । १३ स प्रचुररुन्मु रुम्मु
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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