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________________ १२४ सुभाषितसंदोहः 1446:१७-२१ 146) धर्माधर्मविचारणा विरहिताः सन्मार्गविवेषिणो निन्द्याचारविधी समुद्यतषियः स्वार्थकनिष्ठापराः । दुःखोत्पादकवाक्य भाषणरताः सर्वाप्रशंसाकरा अष्टव्या अपरिग्रह प्रतिसमा विद्वज्जनैजनाः ॥ २१ ॥ प्रचुररुक् [ रुट् ] अवाच्य विर्ष मुञ्चन्, प्राणाकर्षपदोपदेशकुटिलस्वान्तः, दिजिह्वान्वितः भीमभ्रान्तविलोचनः, असमतिः, शववद्दयावजितः, छिद्रान्वेषणतत्परः, भुजगवत् दुर्जनः बुधः वयः ॥ २०॥ विद्वज्जनः धर्माधर्मविचारणाविरहिताः, सन्मान विद्वेषिणः, निन्द्याचारविधौ समुद्रातषियः, स्वार्थे कनिष्ठापराः, दुःखोत्पादफवाक्यभाषणरताः, सर्वांप्रशंसाकराः, दुर्जनाः अपरिग्रहयतिसमा द्रष्टव्याः ।। २१ !! मार्दवत: मान, प्रशमतः क्रुष, संतोषतः लोभ, तु आर्जवतः मायां, अवमतेः जनो, जिह्वासमान कष्टदायक न कहने योग्य वचनको बोलता है। जिसका व्यवसाय, उपदेश और कुटिल मन दूसरोंके प्राणोंका धातक है-उन्हें कष्टमै डालता है, जो दो जीभोंसे सहित है-अपने कहे हुए वचनोंको बदलता रहता है, जिसके नेत्र भयानक एवं चंचल हैं, जिसकी प्रवृत्ति विषम है, जो निरन्तर दयासे रहित है, तथा दूसरों के दोषों. के देखनेमें तत्पर रहता है। उससे विद्वानोंको दूर ही रहना चाहिये ।। २० ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार सर्प सब प्राणियोंको उद्विग्न करता है उसी प्रकार दुर्जन भो सब प्राणियोंको उद्विग्न करता है, अतिशय क्रोधी जैसे सर्प होता है वैसे ही वह दुर्जन भी अतिशय क्रोधी होता है, सर्प यदि मुंहसे प्राणघातक विषको उगलता है तो दुर्जन भी अपने मुंहसे विषके समान कष्टकारक निन्द्य वचनको निकालता है, सर्पका स्थान ( स्थिति । जहाँ प्राणघातक व अन्तःकरण कुटिल होता है वहां दुर्जनका स्थान व उपदेश भी प्राणघातक तथा अन्तःकरण कुटिल होता है, सपं यदि दो जीभोंसे सहित होता है तो दुर्जन भी दो जीभोंसे सहित होता है- वह पहले जिस बासको जिस रूपसे कहता है पीछे उसे बदल कर अन्यया रूपसे कहता है तथा एकसे कुछ कहता है तो दूसरे कुछ और ही कहता है, दृष्टि जैसे भ्रान्त व भयानक सर्पको होती है वैसे ही दुर्जनकी भी वह होती है, सर्प यदि असमगति है-कुटिल चालसे चलता है तो दुर्जन भी असमगति है हो—वह कुटिल ( मायापूर्ण ) व्यवहार करता है, दयासे रहित जैसे सर्प होता है वैसे ही दुर्जन भी दयासे रहित होता है, सथा सर्प जहाँ छिद्र (बिल) के खोजनेमें उद्युक्त रहता है वहाँ दुर्जन भी छिद्र ( दोष ) के खोजने में उद्युक्त रहता है। इस प्रकारसे सपके सब हो गुण उस दुर्जनमें पाये जाते हैं। अतएव बुद्धिमान मनुष्य सर्पको प्राणघात जानकर जैसे उससे सदा दूर रहते है वैसे ही दुर्जनको भी अनेक भवमें कष्टप्रद जानकर उससे भी उन्हें सदा दूर रहना चाहिये ।। २० ।। जो दुर्जन धर्म-अधर्मके विचारसे रहित, समीचीन मार्गसे द्वेष करनेवाले, निन्दनीय आचरण करने में उद्यत, स्वार्थको सिद्धिमें तत्पर, दुखको उत्पन्न करनेवाले वाक्योंके बोलने में उद्यत और सबकी निन्दा करनेवाले हैं उन्हें विद्वान् मनुष्य परिग्रहके नियमसे रहित अवतियोंके समान समझें ।। २१ ॥ विशेषायं-जिस प्रकार अव्रती जन धर्मअधर्मका विचार नहीं करते हैं उसी प्रकार दुर्जन भी धर्म-अधर्मका विचार नहीं करते हैं, समीचीन मार्ग मोक्षमार्गसे जैसे अग्रती द्वेष करते हैं उससे दिमुख रहते हैं वैसे ही दुर्जन भी उससे ( समोचीन मार्ग-सत्प्रवृत्तिसे ) वेप करते हैं, निन्ध आचरणमें जैसें अव्रती जनको बुद्धि प्रवर्तमान होती है वैसे ही दुर्जनोंकी भी बुद्धि उसमें प्रवर्तमान रहती है, अपने स्वार्थकी सिद्धिका ध्यान जैसे अवतो जनको रहता है वैसे ही वह दुर्जनोंको भो १ स विचारिणा । २ स स्वार्थोक' । ३ स वाच्य । ४ स ग्रहा' सम ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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