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________________ १२५ 148 : १७-२३ 1 १७ दुर्जननिरूपणचतुविशतिः 447) मानं मार्दवतः क्रधं प्रशमतो लोभ व संतोषतो मायामार्जवतो' जनीमवमोजिह्वाजयान्मन्मथम् । ध्वान्तं भास्करतो ऽनलं सलिलतो मन्त्रात्समीराशनं नेतु शान्तिमलं कुतोऽपि न खलं मस्या निमित्तावभुवि ।। २२ ।। 448) वोक्ष्या त्मीयगुणै णासधवलयंवर्धमान जनं राहर्वा सितबीधिति' सुखकरैरानन्वयन्तं जगत् । नो नोचः सहते निमित्तरहितो न्यक्कारबद्ध स्पूहः किचिन्नात्र तवद्भुतं खलाने "येनेहगेष स्पितिः ॥२३॥ अयात् मन्मथं, भास्करतः ऽत्रान्तं, सलिलतः अनलं, मन्त्रात् समीराशनं शान्ति नेतुम् अलम् । भुवि मर्त्यः कुतोऽपि निमि तात् स्वलं (शान्ति नेतुं। न (अलम्) ॥ २२ ॥ मृणालघवले: सुख-करः जगत् बानन्दयन्तं सितवीधिति राहुर्वा आत्मीयगुणै: वर्षमानं जनं वीक्ष्य निमित्तरहितः, न्यक्कारबद्धस्पृहः नीचः नो सहते। अत्र किंचित् तत् अद्भुतं न । येन खलजने ईदृगेव स्थितिः [ भवति ] ॥ २३ ॥ यद्वत् काकाः करटिनः मौक्तिकसंहति त्यक्त्वा पलं मुहन्ति । मक्षिकाः चन्दनं त्यक्त्वा कुपिते रहता ही है, जिसप्रकार दूसरोंको दुख देनेवाला भाषण अवती करते हैं उसोप्रकार दुर्जन भी वह करते ही हैं, दूसरोंकी निन्दा जैसे अव्रती करते हैं वैसे ही दुर्जन भी दूसरोंकी निन्दा करते ही हैं। इसीलिये जिसप्रकार कोई भी विचारशील मनुष्य अवती जनके संसर्गमें नहीं रहना चाहता है उसीप्रकार उन्हें दुर्जनके भी संसर्गमें नहीं रहना चाहिये ।। २१ ॥ मानवको मार्दव गुणसे शान्त किया जा सकता है, क्रोधको प्रशम (क्षमा) गुणसे शान्स किया जा सकता है, लोभको सन्तोषसे शान्त किया जा सकता है, मायाको आवसे-मन वचन व कायको सरलतासे शान्त किया जा सकता है, स्त्रीको अपमानित करके शान्त किया जा सकता है, कामको जिह्वा इन्द्रियके जीतनेसे-कामोद्दीपक गरिष्ठ भोजनके परित्यागसे-शान्त किया जा सकता है, अन्धकारको सूर्यसे शान्त किया जा सकता है, अग्निको पानीसे शान्त किया जा सकता है, तथा सर्पको भी मन्त्रसे शान्त किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य पृथ्वी पर दुर्जनको किसी भी निमित्तसे शान्त नहीं कर सकता है ॥ २२|| जिसप्रकार कमलनालके समान श्वेत एवं सुखकारक अपनी किरणोंके द्वारा संसारको आनन्दित करनेवाले चन्द्रको देखकर उसे राहु सहन नहीं करता है-वह उसे ग्रस्त कर लेता है-उसीप्रकार कमलनालके समान श्वेत (प्रशस्स) एवं सुख कारक आत्मीय गुणोंसे-वृद्धिको प्राप्त होनेवाले मनुष्यको देखकर यदि-अकारण ही तिरस्कार करनेकी इच्छा रखनेवाला नीच (दुष्ट) पुरुष सहन नहीं करता है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है ! कारण यह कि दुष्ट मनुष्यकी ऐसी ही स्थिति है-उसका स्वभाव ही ऐसा है ।। २३ ॥ जिसप्रकार कौवे हाथोके मुक्तासमूह को छोड़कर मांसको ग्रहण करते हैं, जिसप्रकार मक्खियाँ चन्दनको छोड़कर दुर्गन्धयुक्त सड़े गले पदार्थपर जाती है व वहाँ नाशको प्राप्त होती हैं, तथा जिसप्रकार कुत्ता मनोहर एवं सुस्वादु अनेक प्रकारके भोजनको १स "वतोजनी' । २ स वीक्षा' । ३ स • दीपति मुख । ४ स बद्धः स्पृहः । ५ स येन वृकेय, येन
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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