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________________ सुभाषितसंदोहः [248 : १०-६ 246) किमत्र विरसे सुखं वयितकामिनीसेयने किमन्यजनप्रीतये द्रविणसंचये नश्वरे। किमस्ति सुविभनरे तनयवर्शने वा भवे यतोऽत्र गतचेतसा तमुमता रतिबध्यते ॥४॥ 247) गतिविगलिता वपुः परिणतं हृषीक मितं कुलं नियमितं भवो ऽपि कलितः सुखं संमितम् । परिभ्रमकृतं भवे भवभूता घटोयन्त्रवन् भवस्थितिरियं सवा परिमिताभ्यनन्ता कुता ॥ ५ ॥ 248} तवस्ति न वपु ता पविह नोपभुक्तं सुखं न सा गतिरनेकषा गतवता न या गाहिता। न ता नरपतिधियः परिचिता न या संसतो न सोऽस्ति विषयो न यः परिचितः सदा देहिना ॥६॥ कि (सुखं भवति) ? हे अङग, गुणमर्दनक्षमजराहते वार्ड के किं (सुखं भवति) ? ॥ ३ ॥ अत्र विरसे दयितकामिनीसेवने कि सुखम् ? अन्यजनप्रीतये नश्वरे द्रविणसंचये कि मुनम् ? सुविमङ्गरे तनयदर्शने वा किं (सुझम्) अस्ति ? यतः बत्र भवे गतचेतना तनुमता रतिः बध्यते ।। ४ ॥ गति विगलिता । वपुः परिणतम् । हृषीके मितम् । कुलं नियमितम् । भवो ऽपि कसितः । भवे परिभ्रमकृतं सुखं संमितम् । भवभूता घटीमन्त्रवत् इयं परिमिता अपि भवस्थितिः सदा अनन्ता कृता ।। ५ ॥ में दुःख हो दुःख भोगना पड़ता है ॥ ३ ॥ वास्तवमें देखा जाय तो इस संसारमें न तो सुंदर प्यारी स्त्रियोंके सेवनमें सुख है। विरसे-विरस होने पर शरीरका वीर्यरस स्खलन होने पर, काम भोगमें भी रस-आनंद नहीं आता । स्त्री-पुत्र आदि अन्य जनोंके रक्षणके लिये, दूसरे लोकोंके भोगके लिये कष्ट साध्य और नश्वर धनका संचय करनेके लिये यह जोय अनेक कष्ट सहन करता है। भाग्यसे स्त्री मिली, धन मिला, तथापि इतनेसे आशाको तृप्ति नहीं होती । पुत्रके मुख दर्शनको आशा चिंता लगती है। वास्तवमें देखा आय तो क्या उसमें भी सुख है ? उससे भी आशाको तृप्ति नहीं होती। तथापि यह जीव इस चेतन अचेतन परवस्तुओंमें तन्मय होकर उनमें ही प्रेम करता है। उनमें प्रेम बंधनमें अपनी यात्माको फसाता है। यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥ ४॥ जिस प्रकार घटीयंत्र परिमित होकर भी सदैव घूमते रहनेसे अपरिमित अनंत सा प्रतीत होता है उसी प्रकार इस शरीरधारी जीवने संसारमें परिभ्रमण करते हुये संसारकी प्रत्येक अवस्था परिमित-मर्यादित होकर भी बार-बार उन अवस्थाबोंको धारण कर अनंत काल तक बनाये रखा। यह बड़ा आश्चर्य है ! वास्तव में यह जीव एक गतिमें स्थिर नहीं रहता। एक गति नष्ट होने पर दूसरी गति धारण करता है। शरीर भी जीर्ण होनेसे एक शरीरको छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करता है। इंद्रियोंकी शक्ति परिमित है तथापि यह जीव इंद्रिय विषयोंकी आशाको अपरिमित-अमर्याद अनंत बनाता है। यह जीव जिस कुलमें उत्पन्न होता है वह कुल भी परिमित है । भव-वैभव भी परिमित मर्यादित होता है। परंतु वैभवकी इच्छा अपरिमित अमर्याद होती है । इंद्रिय विषयजन्य सुख भी तावत्काल परिमित होता है। परंतु सुखकी आशा इस जीवको अपरिमित अमर्याद होती है। इस प्रकार इस जीवने अपनी भवस्थिति वास्तवमें परिमित मर्यादित होकर भी उसकी आशा अमर्याद होनेसे अपनी भवस्थितिको अमर्याद-अनंत काल बनाये रखा है ॥ ५॥ इस संसार चक्र १ स जनदुर्लभे । २ स चिभ, सु(भाविभ° । ३.स मतं for मितं । ४ स om. कुल नियमितं । ५ समक्ते । ६ स या । ७ स परिनतः । ८ स देहिनाम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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