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________________ 251 : १०-९] १०. जातिनिरूपणषड्विंशतिः 249) इदं स्वजनदेहजातनयमातृभार्यामयं विचित्रमिह केनचिद्रचितमिन्द्रजालं ननु । क्य कस्य कथमत्र को भवति तत्त्वतो देहिनः स्वकर्मवशतिनस्त्रिभुवने निजो वा परः॥७॥ 250) होकविषयं सुखं किमिह यन्न भुक्तं भवे किभिक्छति नरः परं सुखमपूर्वभूतं नमु । कुतुहलमपूर्वज भवति नाङ्गिनो ऽस्यास्ति चे मछमैकसुखसंग्रहे किमपि नो विषसे मनः ॥ ८॥ 251) क्षणेन शमवानतो भवति 'कोपवान् संसृतो विवेकविकल: शिशुविरहकातरो वा युवा । "जराक्तितनुस्ततो विगतसर्वश्रेष्टो जरी धाति नटवन्नरः प्रचुरवेषरूपं वपुः ॥९॥ वपुभुता इह यत्सुखं न उपभुक्तं तत् न अस्ति । अनेकधा गतवता या न गाहिता, सा गतिः न । संसृती याः न परिचिताः, ताः नरपतिश्रियः न । यः देहिना सदा न गरिचितः सः विषयः न अस्ति ॥ ६ ॥ इह इदं स्वजनदेहजातनयमातृभामिय विचित्रम् इन्द्रजाल केनचित् रचितं ननु । अत्र त्रिभुवने तत्त्वतः स्वकर्मवशवर्तिनः कस्य देहिनः कः निजः वा परः कथं व मवति ? || ७॥ इह भवे यत् न भुक्तं (सत) हषीकविषयं सुखं किम् (अस्ति) ? ननु दरः अपूर्वभूतं परं सुसम् इति किम् ? अस्य मङ्गिनः अपूर्वजं कुतुहलं न भवति । अस्ति चेत् शर्मकसुखसंग्रहे मनः किं मो विषते ।। ८ ।। नरः संसृती क्षणेन शमवान् अतः कोपवान् भवति । विवेकविकल: शिशः विरहकातरः युवा वा (भवति)। ततः में घूमते हुये इस जीवने एकेंद्रियसे लेकर पंचेंद्रिय तक ऐसा एक भी शरीर नहीं कि जो इसने धारण नहीं किया! इस संसारमें ऐसा कोई सुख नहीं जो इस जीवने नहीं भोगा। ऐसी कोई गति नहीं जो इस गतिमान जीवने धारण नहीं की । ऐसा कोई राजवेमय नहीं जो इस जोवको परिचित नहीं, इस जीवने भोगा नहीं । ऐसा कोई चेतन-अचेतन पदार्थ या क्षेत्र नहीं जो इस जीवको परिचित अनुभूत नहीं है ॥ ६ ॥ इस संसारमें यह अपनी कन्या, पुत्र, माता, स्त्री, इत्यादिको लेकर विचित्र इंद्रजाल नाटक किसने रचा है इसका पता नहीं चलता । वास्तवमें कहाँ कौन किसका किस तरह हो सकता है । अर्थात् कोई भी किसीका नहीं है । अपने अपने कर्मोदयवश इस त्रिभुवनमें ये अपने भाई-बहन बनते है। बादमें यह भव छूटनेपर पर हो जाते हैं। विशेषार्थ-जिस प्रकार इंद्रजालमें देखी गई चोर्जे वास्तवमें सत् रूप यथार्थ नहीं होती। जब सक इंद्रजाल है तब तक दे दीखसों हैं। बादमें नष्ट हो जाती हैं। उसी प्रकार ये भाई बहन इस पर्यायमें जब तक संबंध है तब तक ही रहते हैं। पर्याय बदलने पर सब भिन्न भिन्न हो जाते है॥७॥ जन्म-मरण रूप इस संसारमें ऐसा कोई भी इंद्रिय अन्य सुख नहीं है कि जो इस जीवने अनेकों बार न भोगा हो । परंतु यह जीव ऐसा मूर्ख है कि उस पूर्वभुक्त सुखको ही बार बार भोगना चाहता है। वास्तवमें अपूर्व मुक्त पहले न भोगा हुआ जो सुख होता है वहीं श्रेष्ठ सुस है। इस जोवको अभूतपूर्व सुख भोगनेका कुलूहल ही नहीं है। यदि है तो यह जीव समतारूप उस्कृष्ट सुखके संग्रहके लिये अपना चित्त क्यों नहीं लगाता है ॥ ८॥ यह जीव कभी शांत होता है, तो कभी क्षणमात्रमें क्रोधयुक्त होता है। कभी विवेकशून्य होकर बालक अवस्था धारण करता है। कभो युवा होकर युवतियोंके विरहसे व्याकुल होता है। कभी वृद्ध होकर बुढ़ापेसे सब शरीर पीड़ित-शिथिल होता है, इसलिये कोई भी शरीर १ स त for ननु । २ स रस्ममै १ ३ स सम°। ४ स लोकवान् । ५ स जरादितनस्तदा ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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