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________________ 38१२-१७] २. कोपनिषेधैक विंशतिः 34 में स्थितस्य यदि को ऽपि करोति कर पापं चिनोति गतवुद्धिरयं वराकः । एवं विचिन्त्य परिकल्पकृतं त्यमुश्य हानान्वितेन भवति क्षमितव्यमत्र ॥ १३ ॥ 35) शप्तो ऽस्यनेन न हतो ऽस्मि नरेण रोषाची मारितोऽस्मि मरणे ऽपि न धर्मनाशः। ___कोपस्तु धर्ममपहन्ति चिनोति पापं संचिन्त्य चारुमतिनेति तितिक्षणीयम् ॥ १४ ॥ 36) दु:खार्जितं खलगत घेलभीकृतं च धान्य यथा वहति धक्षिकणः प्रविष्टः । नानायिधमतदयानियमोपवासै रोषोऽर्जितं भवभृतां पुरुपुण्यराशिम् ॥ १५ ॥ 37) कोपेन यः परमभीप्सति हन्तुमको नाशं स एवं लमते शरभो ध्वनन्तम् । . मेघ लिलबिधुरिधान्यजनों किंचिनोति कर्तुमिति कोपवता न भाव्यम् ॥ १६॥ .. 38) कोपः करोति पितृमावसुजनानामप्यमियत्वमुपकारिजनापकारम् । देहाय प्रकृतकार्यविनाशने च मल्वेति कोपवशिनो न भवन्ति भव्याः ॥ १७ ॥ गतबाधम् अनल्पसौख्यं ददाति अमं मम लाभः इति घातकृतः विषह्यम् ।। १२ ।। यदि कोऽपि धर्मे स्थितस्य फष्टं करोति अयं गतबुद्धिः वराक: पापं चिनोति एवं विचिन्त्य ज्ञानान्वितेन अब अमुष्य परिकल्पकृतं क्षमितव्यं भवति ॥ १३ ॥ अनेन नरेण रोषात् पाप्तोऽस्मि न हतो ऽस्मि नो मारितः अस्मि मरणे ऽपि न धर्मनामः । कोपः तु धर्म हन्ति पापं चिनोति इति पारुमतिना संचिन्त्य तितिक्षणीयम ॥१४॥ यथा प्रविष्ट: वकण: दुःशाजितं खलगतं च बलभीकृतं धान्यं दहति तथा रोषः नानाविधवतययानियमोपवासः अजितं भवभूतां पुष्पुभ्यरामिण दहति ॥१५॥ यः अनः अन्यजनः कोपेन पर इन्तुम् अभीप्सति सः कोपेन ध्वनन्त मेघ लिलहिषुः शरभ इव किंचित् कतुं न शक्नोति इति कोपवता न भाग्यम् ।। १६॥ कोपः है, इसलिये इसके ऊपर क्रोध करना उचित नहीं है। ऐसा विचार करता हुआ वह कभी क्रोध नहीं करता है ।। १२ ।। यदि कोई धर्ममें स्थित साधुको कष्ट पहुँचाता है तो वह सोचता है कि मैं तो धरमें स्थित हूँ, किन्तु यह बेचारा अज्ञानी प्राणी मुझे काट देकर स्त्रयं ही पापका संचय कर रहा है। ऐसा विचार करके विवेकी साधु उस अज्ञानीके द्वारा किये जानेवाले अपराधको यहाँ क्षमा ही करता है।॥१३॥ यदि कोई अपशब्दोंका प्रयोग करता है तो विवेकी साधु यह विचार करता है कि इस मनुष्यने मुझे झोपते गाली हो तो दी है, मारा तो नहीं है। यदि वह मारने भी लग जावे तो फिर वह यह विचार करता है कि इसने मुझे मारा ही तो है, प्राणोंका नाश तो नहीं किया। परन्तु यदि वह प्रार्णोका नाश करनेमें भी उद्यत हो जाय तो बह ऐसा विचार करता है कि इसने क्रोधके वशीभूत होकर मेरे प्राणोंका ही नाश किया है, मेरे प्रिय धर्मका सो नाश नहीं किया; इसलिये मुझे इस बेचारे अज्ञानी प्राणीके ऊपर क्रोध करना उचित नहीं है। कारण कि वह क्रोध धर्मको नष्ट करता है और पापको संचित करता है। ऐसा सोचकर बुद्धिमान् साधु उसको क्षमा ही करता है | १४ | दुखसे उत्पन्न किया गया जो धान्य (अनाज) खलिहानमें राशिके रूपमें स्थित है उसमें यदि अग्निका कण प्रविष्ट हो जाता है तो जैसे वह उस राशीकृत धान्यको जला देता है वैसे ही क्रोधरूप अग्निका कण भी अनेक प्रकारके व्रत, दया, नियम एवं उपवासोंके द्वारा उपार्जित जीवों की महती पुण्यराशिको जला देता है ।। १५ ।। जो अज्ञानी मनुष्य कोषसे किसी दूसरे प्राणीका घात करना चाहता है वह स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है । जैसे गरजते हुए मेषको लोचनेकी इच्छा करनेवाला अष्टापद पशु मेधका कुछ भी अनिष्ट न करके स्वयं हो नाशको प्राप्त होता है। वास्तवमें दूसरा मनुष्य किसीका कुछ भी अनिष्ट करनेको समर्थ नहीं है। यही विचार कर बुद्धिमान् मनुष्यको कोधयुक्त नहीं होना चाहिये ।। १६॥ क्रोध पिता, माता और मित्रजनोंका भी १ स 'कल्प्य । २ स स्वमुख्यः, स्वमुष्प । ३ स दोषा | ४ स संचिस्य । ५ स बहुलीकृतं । ६ स जने न्य । ७स प्रकृति।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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