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________________ सुभाषितसंदोहः [30:२.९30) आत्माममन्यमय हन्ति जहाति धर्म पापं समाचरति युक्तमपाकरोति। पूज्यं न पूजयति धक्ति विनिन्यवाक्य के किं करोति न न खलु कोपयुक्तः ॥९॥ 31) दीपेषु सत्सु यदि को ऽपि ववाति शाप सत्यं ब्रवीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम्। दोवसत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं मिथ्यो ब्रवीत्ययमिति प्रविधिस्य सहाम् ॥१०॥ 32) कोपेन को ऽपि यदि वास्यते ऽय हन्ति पूर्व मयास्य कृतमेतदनर्थबुद्ध्या। शेषो ममैव पुनरस्य म को ऽपि दोषो ध्यात्वेति तत्र मनसा सहनीयमस्य ॥ ११ ॥ 33) व्याध्यादिदोषपरिपूर्णमनिसंग पूतीदमामपनीवाषियर्थ धर्मम् । शुद्धं ददाति गतबाधमनरूपसौम्य लाभो ममायमिति घातकतो विषयम् ॥ १२॥ निवासं विवधातु ब्रह्मवतं धरतु मक्षरतः अस्तु तत् सर्वम् अनर्यकं (भवति) ॥८॥ (स:) आत्मानम् अथ अन्यं हन्ति धर्म जहाति पापं समाचरति युक्तम् अपाकरोति पूज्यं न पूजयति विनिन्यवाक्यं बक्ति । कोपयुक्तः नरः खलु किं किं न करोति (अपि तु सर्वम् अनुचितं करोति) ॥ ९॥ पदि कोऽपि (नरः) योपेषु सस्तु शापं ददाति अयं सत्यं ब्रवीति इति प्रविचिन्त्य सह्यम् । यदि कोऽपि दोषेषु असत्सु शापं ददाति अयं मिथ्या ब्रवीति इति प्रविचिन्त्य साम् ॥ १०॥ यदि को ऽपि कोपेन तारयते मनहन्ति (तवा) ममा अनर्यवुद्ध्या अस्य पूर्वम् एतत् कृतम् । मम एव दोषः अस्प पुनः कः अपि दोषः न इति म्यात्वा सन्न मनसा अस्प सहनीयम् ।। ११॥ व्याध्यादिदोषपरिपूर्णम् अनिष्टसंग पूति इवम् अङ्गम् अपनीय गुवं धर्म विवर्ध्य निवास करे, ब्रह्मचर्यवसको धारण करे, तया निरन्तर भिक्षाभोजनमें भी लीन रहे; किन्तु यदि वह क्रोधको करता है तो उसका वह सब उपर्युक्त आचरण व्यर्थ हो जाता है 1॥ ८॥ क्रोधयुक्त मनुष्य निश्रयसे क्या क्या अनर्ष नहीं करता है ! अर्थात् यह सभी प्रकारके अनर्थको करता है-वह अपने स्वाभाविक क्षमादि गुर्गोको नष्ट करके अपना भी घात करता है और अन्य प्राणीके प्राणोंका त्रियोग कर उसका भी घात करता है, वह धर्मका परित्याग करता है, पापका आचरण करता है, सदाचारको नष्ट करता है, पूज्य जनकी पूजा-स्तुति नहीं करता है, और अत्यन्त निन्ध वचनको बोलता है ॥९॥ दोषोंके होनेपर यदि कोई शाप देता है-अपशब्द बोलता है या निन्दा आदि करता है तो वह सत्य बोलता है, ऐसा विचार कर विवेकी जीवको उसे सहन करना चाहिये। और यदि दोर्षोंके न होनेपर भी कोई शाप देता है तो वह असत्य बोलता है, ऐसा विचार करके उसको सहन करना चाहिये । इस प्रकार यहाँ यह क्रोधके जीतनेका उपाय निर्दिष्ट किया गया है ॥ १०॥ यदि कोई क्रोधसे ताडना करता है- शारीरिक कष्ट देता है-अयवा प्राणवियोग करता है तो मैंने पूर्वमें अहितकी बुद्धिसे इसका यह ताडन-मारण- किया है, इसलिये यह मेरा ही अपराध है, इसका कुछ भी अपराध नहीं है। ऐसा मनसे विचार करके इस आये हुए दुसको सहना चाहिये ॥११॥ जो यह मेरा शरीर रोग आदिसे परिपूर्ण, अनिष्ट पदार्थोंकी संगति करनेवाला एवं दुर्गन्धयुक्त है उसको नष्ट करके और धर्मको बड़ा करके यह घातक मनुष्य शुद्ध, निर्बाध एवं अनन्त आत्मिक सुखको देता है। यह मुझे लाभ ही है ऐसा सोचकर उस घातकके द्वारा किये जानेवाले मरणदुखको सहन करना चाहिये। विशेषार्थ-यदि कोई दुष्ट मनुष्य गाली देकर या शरीरको पीडित करके भी शान्त नहीं होता है और प्राणोंका घात ही करना चाहता है तो भी विवेकी साधु ऐसे समयमें यह विचार करता है कि यह जो मेरा शरीर शारीरिक एवं मानसिक दुःखोंसे परिपूर्ण व संसारपरिभ्रमणका कारण है उसे यह पृथक् करके मेरे धर्मका रक्षण करता है । इससे मुझे वह निर्बाध अनन्त सुख प्राप्त होनेवाला है जो इस शरीरके रहते हुए कभी सम्भव नही है । इस प्रकारसे तो यह मेरा महान उपकारी 1 स युक्ति । २ स सिनियवाच्य । ३ स मिथ्यो । ४ स 'निष्ट । ५ स पूतीह ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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