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२. कोपनिषेधैर्विशतिः 25) यः कारणेन वितनोति रुषं मनुष्यः कोपः' प्रयाति शमनं तदभावतो ऽस्य।
यस्त्वत्र कुप्यति विनापि निमित्तमङ्गी नो तस्य कोऽपि शमनं प्रविधामीशः॥ ४॥ 26) धैर्ये धुनाति विधुनोति मति क्षणेन रागं करोति शिथिलीकुरुते शरीरम् ।
धर्म हिनस्ति पचन विवधात्यक्षाच्य कोपग्रहों रतिपतिर्मदिरामवश्व ॥५॥ 27) रागं रशोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं चि विवेकरहितानि च चिन्तितामि ।
पुंसाममार्गगमम समदुःसजातं कोपः करोति सहसा मदिराम ॥ ६॥ 28) मैत्रीतपोयतयशोनियमानुकम्पासौभाग्यभाग्यपठनेन्द्रियनिर्जयायो ।
नश्यन्ति कोपपुरवैरिहताः समस्तास्तीवाग्नितप्तरसंवरक्षणतो मरस्य ॥ ७॥ 29) मासोपषासनिरतो ऽस्तु तनोतु सत्य" ध्यानं करोतु विदधातु पहिनिवासम्।
. प्रक्षत्रतं धरतु भैरतो ऽस्तु नित्य रोपं करोति यदि सर्पमनर्थकं सत् ॥८॥ यः मनुष्यः कारणेन रुषं वितनोति अस्य कोपः तदभावतः शमनं प्रयाति, तु अव यः अली निमित्तं विना अपि कुप्यति तस्य समनं प्रविधातुं क. अपि नो ईश: (भवति) ॥४॥ कोपग्रहः रतिपतिः च मदिरामदः धय धुनाति मति विधनोति राग . करोति शरीरं शिथिलीकुरुते धर्म हिनस्ति (च) अवान्यं वचनं विदधाति ॥ ५॥ कोपः च मदिरामदः पुंसां दृशः राग पषि कम्पम् अनेकरूपं चित्तं विवेकरहितानि चिन्तितानि अमार्गगमनं च सभदुःखजातं सहसा करोति ॥६॥ नरस्म समस्ताः मैत्रीतपोवतयशोनियमानुकम्पासौभाग्यभाम्यपठनेन्द्रियनिर्जयाद्याः कोपपुत्वैरिहताः सन्तः तीवाप्रितप्तरसवत् क्षणतः नश्यन्ति ॥ ७॥ नर: यदि नित्यं रोषं करोति (तदा सः) मासोपवासनिरतः अस्तु सत्यं तनोतु ध्यान करोतु गहिभोगना पड़ता है ॥३॥ जो मनुष्य किसी कारणसे क्रोध करता है उसका यह क्रोध उक्त कारणके इट जानेपर शान्तिको प्राप्त हो जाता है। किन्तु जो मनुष्य विना ही कारणके कोध करता है उसके क्रोधको शान्त करनेके लिये यहां कोई भी समर्थ नहीं है ।। ४ ।। कोषरूप प्रह, कामदेव और मदिराका मद; ये क्षणभरमें धैर्यको नष्ट कर देते हैं, बुद्धिका विधात करते हैं, मत्सरताको उत्पन्न करते हैं, शरीरको शिथिल करते हैं, धर्मको नष्ट करते हैं, तथा निन्ध वचन बोलनेको प्रेरित करते हैं ॥५॥ जिस प्रकार कोध सहसा मनुष्योंको आँखों में लालिमाको, शरीरमें कम्पको, अनेक प्रकारके चित्तको, विवेकरहित विचारोंको तथा दुखसमूहके साथ कुमार्गप्रवृत्तिको करता है उसी प्रकार मदिराका मद (नशा) भी करता है। विशेषार्थ क्रोध और मद्य ये दोनों समान हैं, क्योंकि, जिस प्रकार मघके पीनेसे मनुष्यकी आंखें लाल हो जाती हैं उसी प्रकार क्रोधसे भी उसकी आंखें लाल हो जाती हैं, जैसे शरीरका कम्पन मयके पीनेसे होता है वैसे ही यह क्रोधके कारणसे भी होता है, जिस प्रकार मद्यके पीनेसे चित्त चंचल हो जाता है उसी प्रकार क्रोधके वश होनेपर भी वह चंचल हो जासा है, जिस प्रकार मथ पीनेसे मनुष्यके विचार विवेकसे रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार क्रोधके वशीभूत होनेपर भी उसके विचार कर्तव्य-अकर्तव्यके विवेकसे. रहित हो जाते हैं, तथा जिस प्रकार मद्यको पीकर मनुष्य खोटे मार्गमें गमन करता हुआ दुख सइता है उसी प्रकार क्रोधके वश हुआ मनुष्य भी खोटे मार्गमें (जीवघातादिमें ) प्रवृत्त होता हुआ अनेक प्रकारके दुखको सहता है ॥६॥ मित्रता, तप, व्रत, कीर्ति, नियम, दया, सौभाग्य, माम्प, शास्त्राभ्यास और इन्द्रियदमन आदि ये सब मनुष्यके गुण क्रोधरूप महान् बरसे पीडित होकर क्षणभरमें इस प्रकारसे नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार कि तीव्र अग्निसे सन्तप्त होकर जल नष्ट हो जाता है॥७॥ मनुष्य भले ही महिने महिने तकका उपवास करनेमें तत्पर रहे, सत्य बोले, ध्यान करे, बाहिर बनमें
1 स कोपं । २ स यस्तत्र । ३ विदधातु' । ४ स om. मतिं । ५ स कोपोग्रहो। ६ स चित्ते, निते। उस चिन्तनानि । ८ स 'यशोव्रततपो । ९ स निर्जराद्याः : १० स परवैरि , पुरुषवैरि । ११ स नित्यं । १२स भैश्यरतो।