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________________ [ २५, तनिषेधैकविंशतिः ] 621) यानि कानिचिदनयंपोधिके जन्मसागरजले निमजताम् । सन्ति बुःखनिल यानि देहिमां सानि चाक्षरमणेन निश्चितम् ॥१॥ 622) तायवत्र पुरुषा विवेकिनस्तावदेति' सुजनेषु पूज्यताम् । तावदुत्तमगुणा भवन्ति च याववमरमणं न कुषते ॥२॥ 623) सत्यशौचशमशमयजिता धर्मकामधनतो बहिष्कृताः । गृतदोषमलिना विचेतनाः कं" न बोषमुपचिन्दले जनाः ॥३॥ 624) सत्यमस्यति करोस्यसत्पता दुर्गति नयति हम्ति सदगतिम् । धर्ममत्ति वित्तनोति पातकं घूसमन्त्र कुरुते ऽथवा न किम् ।। ४ ॥ 625) घ ततोऽपि कुफ्तिो विकम्पले विग्रहं भजाति तन्नरो यतः। जायते मरणमारणनिया तेन तभमतिनं बोष्यति ॥५॥ 626) छतवेदनरतस्य विद्यते देहिना न करना विना तया । पापमेति पुरुखःसकारण श्वन बासमुपयाति तेन सः ॥६॥ __ अनर्थवीचिके जन्मसागरजले निमज्जतां देहिनां यानि कानिचिद् दुःसनिलयानि सन्ति तानि अक्षरमणेन निश्चित भवन्ति ॥ १ ॥ यावत् अत्र पुरुषा क्षरमणं न कुर्वते तावत् विवेकिनः, तावत् सुजनेषु पूज्यताम् एति, च तावत् उत्तमगुणाः भवन्ति ॥ २॥ छूतदोषमलिना विचेतनाः जनाः सत्यशौचशमशर्मवनिताः धर्मकामघनतो बहिष्कृताः [सन्तः ] के दोषं न उपचिन्वते ॥ ३ ॥ यूतं सत्यम् अस्यति, असत्यता करोति, दुर्गति नयति, सद्गति हन्ति, धर्मम् अत्ति, पातकं वितनोति । अथवा अत्र किं न कुरुते ।। ४ ॥ यतः नरः यूततः कुपितः विकम्पते, विग्रहम् बपि मजति । तेन मरणमारणकिया च जायते । सन्छुभमतिः न दोव्यति ॥ ५॥ तदेवनरतस्य देहिनां करुणा न विद्यते । तया बिना पुरुःखकारणं पापम् अनर्थरूप लहरोंसे परिपूर्ण संसाररूप समुद्र में डूबनेवाले प्राणियोंके लिये जितने कुछ भी दुखके स्थान है वे सब निश्चयसे जुआ खेलनेसे प्राप्त होते हैं।शा पुरुष अब तक यहाँ चूतकीड़ा नहीं करते हैं-जुमा नहीं खेलते हैं तब तक ही विवेकी रह सकते हैं, तब तक ही सज्जनोंके बीच में पूजाके योग्य रह सकते हैं, और सब सक हो उत्तम गुणोंसे सहित रहते हैं ॥ २॥ जो अविवेकी प्राणो यतकोड़ाके दोषसे मलिन होते है-जुआ खेलते हैं ये सत्य, शौच, शम और सुखसे रहित तथा धर्म, काम और धन इन तीन पुरुषार्थोसे विमुख होकर किस दोषको संचित नहीं करते हैं ? अर्थात् वे सब ही दोषोंको संचित करते हैं ।। ३ ।। द्यूत सत्यको नष्ट करके असत्यताको करता है, उत्तम गतिको नष्ट करके दुर्गतिको ले जाता है, तथा धर्मका भक्षण करके पापको उत्पन्न करता है। अथवा ठीक ही है-यूत यहाँ क्या नहीं करता है ? वह सब ही अनर्थको करता है ॥४॥ तसे चेंकि मनुष्य के क्रोध उत्पन्न होता है, इससे उसका शरीर कांपने लगता है, वह लड़नेके लिये उद्यत हो जाता है, तथा इससे मरने या मारनेकी क्रिया उत्पन्न होती है, इसीलिये निमंलबुद्धि मनुष्य उम द्यूतको नहीं खेलता है ॥५॥ जो १ सजने । २ स दुःखलयानि । ३ स अतावति [ on a ] प्रति जनेगु, स्तानदप्रति, it. सु । ४ स मतिना । ५ स किं for कं । ६ सद्यतदेवनर वस्य । ७सom. विद्याटसहिना । १ स करुणां । १० स तये। ११स पर। . सं. २२
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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