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________________ सुभाषित संदोह 627) पैशुनं' कटुकमश्रवः सुखं वक्ति वाक्यमनृतं विनिन्दितम् । वचनाय कितवो विचेतनस्तेन तिर्यगति मात्रमेति सः ॥ ७ ॥ 628) अन्यदीयमविचिन्त्य पातकं निर्घुणो हरति जीवितोपमम् । sues feast विचेतनस्तेन गच्छति कदर्थनां चिरम् ॥ ८ ॥ 629) व दुःखपटुकमंकारिणों कामिनीमपि परस्य दुःखदाम् । धूतवषमलिनो ऽभिलष्यति संसृतावहति तेन दुःखितः ॥ ९ ॥ 690) जीवनाशनमनेका' बषद् ग्रन्यमक्षरमणोद्यतो नरः । १७० १० ॥ स्वीकरोति "बहूनुः ख 'मस्तधीत्तत्प्रयाति भवकाननं यतः ॥ 631 ) साघु पितृमातृसज्जनान्मन्यते' न न बिभेति दुःखतः । ज्जते न तनुते मलं कुले धूतरोक्तिमना निरस्सीः ॥ ११ ॥ 632) द्यूतना शितधनो गताशयो मातृवस्त्रमपि यो ऽपकर्षति । शीलवृत्ति कुलजातिदूषणः किं न कर्म कुरुते स मानवः ॥ १२ ॥ 40 [627 २५-१२ ॥ एति । तेन सः श्वासम् उपयाति ॥ ६ ॥ विचेतनः कितवः वञ्चनाय पैशुनं कटुकम् अभवः सुखं विनिन्दितम् अनु वाक्यं वक्ति । तेन सः अतिमात्रं तिर्यक् एति ॥ ७ ॥ अत्र विचेतनः कितवः पातकम् अविचिन्त्य अन्यवीयं जीवितोपत्र व्यं निर्घुणं हरति । तेन चिरं कदनां गच्छति ॥ ८ श्रुतदोषमलिनः परस्य दुःखयां श्वभ्रुदुः खपटुकर्मकारिणों कामिनीम् अपि अभिलष्यति । तेन दुःखितः संसुतो भटति ।। ९ ।। अक्षरमणोद्यतः मस्तषीः नरः जीवनाशनम् अनेकषा ग्रन्थं वषत् बहुदुःखं स्वीकरोति । यतः तत् भवकाननं प्रयादि ॥ १० ॥ यूतरोपितमनाः निरस्तधीः साधुबन्धुपितृमातृसज्जनान् न मन्यते । दुःखतः न बिभेति न सज्जते, कुले मलं तनुते ॥ ११ ॥ बूदनाशितपनः गताशयः यः मानव: मातृवस्त्रमपि जो मनुष्य द्यूतकोड़ामें आसक्त है उसके जीवोंके प्रति दया नहीं रहती है, उस दयाके बिना महादुस्खके कारणभूत पापका संचय होता है, और उससे वह नरकवासको प्राप्त होता है- नरकके दुःसह दुखको सहता है ॥६॥ मूर्ख जुवारी मनुष्य दूसरोंको ठगनेके लिये ऐसे निन्दित असत्य वचनको बोलता है जो दुष्टतासे परिपूर्ण, कडुवा और कानोंको दुखप्रद होता है तथा इससे वह अतिशय तिरछा जाता है- तिर्यग्गतिको प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ मूर्ख जुवारी मनुष्य पापका विचार न करके यहाँ निर्दयता पूर्वक दूसरेके प्राणोंके समान प्रिय वनको हरता है और उससे चिरकाल तक पीड़ाको प्राप्त होता है ॥ ८ ॥ जो मनुष्य द्यूतके दोषसे मलिन होता है वह नरकगतिके दुखको उत्पन्न करनेवाले कार्यको करानेवालो दुखप्रद परस्त्रोकी भी अभिलाषा करता है और उससे दुखित होकर संसार में परिभ्रमण करता है ॥ ९ ॥ द्यूतक्रीड़ा में उद्यत मनुष्य अज्ञानतासे जीव घातके कारणभूत अनेक प्रकारके परिग्रहको धारण करता हुआ बहुत दुखको देनेवाले पाप कर्मको स्वीकार करता है, जिससे कि संसाररूप वनमें परिभ्रमण करता है ॥ १० ॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य द्यूत्तमें मनको लगाता है वह साधु बन्धु, पिता, माता और सज्जनका सम्मान नहीं करता है; दुखसे डरता नहीं है, लज्जाको छोड़कर निर्लज्ज हो जाता है, तथा कुलमें दाग लगाता है || ११ || जिस मनुष्यका घन द्यूतसे नष्ट किया जा चुका है तथा इसीलिये जो हतबुद्धि होकर मात्ताके वस्त्रको भी खींच लेता है वह शील, संयम कुल और जातिको मलिन करके कौन से १ स पैशुकं । २ स वा श्रुवा° ३ स वाच्य । ४ स तेन तिर्यगतिमेति [ तिर्ज, तिर्यग्ग° ] तेन सः ॥ ५ ७ स वहुदोषम् । ८ स "मिस्तवि° । ९स मन्यते न तनुते भलं कुले द्यूती शुभ्र यतः | १० स कुलनीतिदु° । शुभ्र । ६ वासमुपयत् का
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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