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________________ १७१ 638 : २५-१८] २५. चूतनिषेधैकविंशतिः 633) घ्राणकर्णकरपादकतन' यशेन लभते शरीरवान् । तत्समस्तसुखधर्मनाशनं च तमाश्रयति क: सचेतनः ॥ १३ ॥ 634) धर्मकामधनसौख्यनाशिना वरिणाक्षरमणेन बेहिनाम् । सर्वदोषनिलयेन सर्वचा संपवा खलु सहाश्वमाहिषम् ॥ १४ ॥ 635) यदशा दद्वितयजन्मनाशनं युद्ध राटिफलहावि कुर्वते। तेन शुद्धषिषणा न तन्वते तमत्र ममसापि मामवाः ॥ १५ ॥ 636) घ तनाशितसमस्तभूतिको वम्भ्रमीति सकला भुवं नरः । ओर्णवस्त्रकृतबेहसंवृति मस्तकाहितभरः क्षुधातुरः॥ १६ ॥ 637; याचते नटति पाति दोनता लज्जते म कुछते विसम्मनाम् । सेवते नमति याति दासतां चूतसेवमपरो मरो ऽषमः" ॥१७॥ 638) सम्यते २ ऽन्यकितवेनिषेप्यते मध्यसेवधनमुच्यते कटु । नोद्यते ऽत्र परिभूयते मरो हन्यते च कितयो विनिन्द्यते ॥१८॥ __अपकर्षति सः शीलवृत्ति-कुलजातिदूषणः कि कर्म न कुरुते ।। १२ ।। यदशेन सरीरवान् प्राणकर्णकरपावकर्तनं लभते तत् समस्तसुखधर्मनाशनं द्यूतं कः सवेतनः आश्रयति ।। १३ । धर्मकर्मधनसौख्यनाशिना सर्वोपनिलयेन देहिनां वैरिणा असरमणेन संपवा सह खलु सर्वदा अश्वमाहिएं [ विद्यते ॥ १४ । मवशात् मानवाः द्वितयजमनाशनं युद्धराटिकलहादि कुर्वते । तेन अत्र शुधिषणा: मनसा अपि यूतं न तन्वते ।।१५।। द्यूतनाशितसमस्तभूतिकः, जीर्णवस्त्रकृतदेहसंहतिः, मस्तकाहितभरः अधातुरः नरः सकलां भुवं बम्भ्रमीति ॥ १६ ॥ तसेवनपरः अधमः नर याचते, नटसि, दीनतां याति, न लज्जते, विडम्बनां कुरुते, सेवते, नमति, दासतां याति ।। १७ ॥ अत्र कितवः नरः अन्यक्तिवः ध्यते, निषेध्यते, बध्यते, कटु कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् जुवारी मनुष्य जुएमें धनको गमाकर सब कुछ करने लगता है ॥ १२ ॥ जिस द्यूतके वशमें होकर मनुष्यको नासिका, कान, हाथ और पैरके काटे जानेके दुखको सहना पड़ता है उस समस्त सुख और धर्मको नष्ट करनेवाले द्यूतका कौन-सा सचेतन प्राणी आश्रय लेता है ? कोई नहीं लेता | तात्पर्य यह कि जो इसप्रकारसे दुख देनेवाले द्यूतमें आसक्त होता है उसे जड़ ही समझना चाहिये ।। १३ ।। जो छूतरूप शत्रु प्राणियोंके धर्मकर्म, धन और सुखको नष्ट करनेवाला तया सब दोषोंका स्थान है उसके साथ सम्पत्तियोंका सदा अश्व और भैसके समान वैर रहता है। अभिप्राय यह कि जुवारी पुरुषकी सब सम्पत्ति नष्ट हो जाती है जिससे कि वह अतिशय दुखी होता है ॥ १४ ॥ चूंकि धूतके वशमें होकर मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों हो लोकोंको नष्ट करता है तथा युद्ध, राटि और कलह आदिमें प्रवृत्त होता है इसीलिये यहाँ निर्मल बुद्धि मनुष्य मनसे भी उस द्यूतको नहीं स्वीकार करता है ।। १५ । जिस मनुष्यको विभूति घूतके द्वारा नष्ट हो चुकी है वह जीर्ण वस्त्रसे शरीरको आच्छादित करके भूखसे पीड़ित होता हुवा मस्तक पर बोझको धारण करता है और समस्त पृथिवीपर घूमता है ।! १६ ।। जो नीच मनुष्य द्यूतको सेवामें तत्पर है वह भीख मांगता है, नाचता है, दौनताको प्राप्त होता है, लज्जाको छोड़ देता है, विडम्बना करता है, सेवा करता है, नमस्कार करता है और दासताको प्राप्त होता है ॥ १७ ।। जुआरो मनुष्यको यहाँ दूसरे जुआरी जन सेहते हैं, निषेव करते हैं बध करते सकर्तन पदर्शन, यदशेन। २ स नाशिनी, 'नाशिनी, om. १/३ चरणौ। ३ वरिणी । ४ स संपदा । ५ स शाहितय । ६ स शुद्धराद्रि', 'राटि कलह । ७ स °धिषणो। ८ स तन्यते । ९स मूतिके। १० स संहति , संतति । ११ - [:] धमो नरः । १२ स शुध्यते न । १३ स वध्यते ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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