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________________ [ 639 : २५-१९ १७२ सुभाषितसंवोहः 639) हन्ति ताडयति भाषते वनः कर्कशं रटति खिद्यते' व्ययाम् । संतनोति विवधाति रोधनं द्यूततोऽय कुरुते न कि नरः ॥ १९ ॥ 640) जल्पितेन बहुना किमत्र भो चूसतो न परमस्ति दुःखवम् । चेतसेति परिचिन्त्य सज्जनाः कुर्वते न रतिमत्र सर्वया ॥ २० ॥ 641) शीलवृत्तगुणधर्मरक्षणं स्वर्गमोक्षसुखदानपेशलम्।। कुर्वताक्षरमणं न तत्वतः सेव्यते सकलदोषकारणम् ॥ २१ ॥ इति द्यूतनिषेक विशतिः ॥ २५ ॥ वचनम् उच्यते, नोचते, परिभूयते हन्यते, विमिन्यते च ॥ १८ ।। द्यूततः नरः हन्ति, तारुमति, कर्कशं वच: भाषते, रति, विद्यते, व्यथा संतनोति, रोषनं विदधाति । अथ कि न कुखते ।। १९॥ भोः अत्र बहु जल्पितेन किम् । घूततः परं दुःख न अस्ति । सज्जनाः इति चेतसा परिचिन्त्य अत्र सर्वथा रतिं न कुरुते ॥ २० ॥ स्वर्गमोक्षसुखदानपेशलं शोलवृत्तगुणधर्मरक्षणं कुर्वता तत्वतः सकलदोषकारणम् अक्षरमण न सेव्यते ॥ २१ ॥ ___इति धूतनिषेधैकविंशतिः ॥ २५ ।। हैं, कटु वचन बोलते हैं, पोड़ा देते हैं, सिरस्कृत करते हैं, मारते हैं, और निन्दा करते हैं ॥ १८॥ मनुष्य जुआके निमित्तसे दूसरेका घात करता है, उसे ताड़ित करता है, कठोर वचन बोलता है, परिभाषण करता है, दोन बनाता है, कष्ट पहुंचाता है, और निरोध करता है। अथवा ठीक है-द्यूतसे यहाँ मनुष्य क्या नहीं करता है? सब ही निन्ध कार्यको बह करता है ॥ १९ ॥ भो भव्य जन! बहत कहनेसे क्या लाभ है ? द्यूतसे अन्य और कोई भी कार्य दुख देनेवाला नहीं है-धूत ही प्राणियोंके लिये सबसे अधिक दुख देता है। यही मनसे विचार करके सज्जन पुरुष यहाँ जुआमें अनुराग नहीं करते हैं-उससे वे सर्वथा दूर हो रहते हैं ।। २० । जो स्वर्ग और मोक्षके सुखके देनेमें दक्ष शील, संयम, गुण एवं धर्मको रक्षा करता है वह समस्त दोषों के कारणभूत द्यूतका वास्तवमें सेवन नहीं करता है ।। २१ ।। इसप्रकार इक्कीस श्लोकोंमें छूतका निषेध किया । १स विद्यते । २ स on. दान। ३ स निधनिरूपणम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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