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________________ [ २६. आप्तविचारद्वाविंशतिः ] 642) वान्छत्यङ्गी समस्तः सुखमनयरतं कर्मविध्वंसतस्त चारित्रात्स प्रबोधाद्भवति तवमलं स श्रुतादाप्ततस्तत् । निर्दोषात्मा स बोषा जगति निगदिता द्वेषरागावयो ऽत्र ज्ञात्वा मुक्त्यै तु दोषाधिकलितविपदो नाश्रयन्त्य सतन्द्राः॥१॥ 643) जन्मापारमध्यं मृतिजननजरावर्तमत्यन्तभोमं नानावुःखोपनकभ्रमणकलुषितं व्याधिसिन्धुप्रयाहम् । नोयन्ते प्राणिवर्गा गुरुदुरितभरं यैनिरूप्यारसन्तस्ते रागद्वेषमोहा रिपुववसुखदा येन धूताः स आप्तः ॥२॥ समस्तः अङ्गी अनवरतं सुख वाञ्छति । तत् कर्मविध्वंसतः, स चारित्रात्, अमलं तत् प्रबोधात् भवति । स श्रुतात्, तत् आप्ततः, स निर्दोषात्मा । दोषाः तु अत्र जगति द्वेषरागादयः निगदिताः। विकसितविपदः अस्तनिद्रा: [इनि ] ज्ञात्वा मुक्त्यै दोषान् न आश्रयन्ति ॥ १ ॥ यः गुरुदुरितभरं निरूप्य आरसन्तः प्राणिवर्गाः मृतिजननजरावर्तम्, अत्यन्तभीमम्; नानादुःखोग्रनक्रनमणकलुषितं, व्याधिसिन्धुप्रवाह, जन्माकूपारमध्यं नीयन्ते, ते रिपुवत् असुखदाः रागद्वेषमोहाः येन धूताः सः आप्तः ।। २ ।। येन अस्तवैर्यः शम्भुः गिरिपतितनयां देहार्धे नीतवान् । मुरहिट लक्ष्मी वक्षः (नीतवान्) । पयसिज समस्त प्राणिसमूह निरन्तर सुखकी अभिलाषा करता है, वह सुख ककि क्षयसे होता है, कोका क्षय चारित्रसे होता है, वह निर्मल चारित्र सम्यग्ज्ञानसे होता है, सम्यग्ज्ञान श्रुतके अभ्याससे होता है, उस श्रुतकी उत्पत्ति आप्तसे होती है, आप्त निर्दोष होता है, और दोष यहाँ रागद्वेषादि कहे गये हैं: यह जानकर सावधान सज्जन विपत्तियोंसे रहित होकर मुक्तिके निमित्त उक्त रागादि दोषोंका कभी आश्रय नहीं करते हैं ।। १ ॥ जो राग द्वेष व मोह भारी पापके बोझको देखकर शब्द करते हुए प्राणियोंके समूहको उस संसाररूप समुद्रके मध्यमें ले जाते हैं जो कि मृत्यु, जन्म और जरा रूप भेबरोंसे सहित है, अतिशय भयानक है, अनेक दुखरूप भयानक मगरोंके घूमनेसे कलुषित है, तथा व्याधिरूप नदियोंके प्रवाहसे सहित हैं; उन शत्रुके समान दुख देनेवाले राग, द्वेष व मोहको जो नष्ट कर चुका है वह आप्त है ।। २ ॥ विशेषार्थ----आप्त शब्दका अर्थ विश्वस्त है । जो राग द्वेष व मोह आदि अठारह दोषोंसे रहित, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है वह आप्त कहलाता है। जो व्यक्ति राग व द्वेष आदिसे कलुषित होता है वह यथार्थवक्ता नहीं हो सकता है। कारण कि वह उन रागद्वेषादिसे प्रेरित होकर कदाचित् असत्य भाषण भी कर सकता है। प्राणीके राग-द्वेष आदि ही वास्तविक शत्रु हैं, क्योंकि इन्हींके निमित्तसे वह गुरुत्तर पाप कर्मको उपाजित करता है और फिर उसीके वश होकर ससाररूप समुद्रमें गोते खाता हुआ अनेक प्रकारके दुःसह दुखको सहता है । यह जान करके ही मुमुक्षु जन उन रागद्वेषादिको ध्वस्त करके शाश्वतिक सुखको प्राप्त करते हैं ।। २॥ जिस कामदेवके वशमें होकर अधीर होते हुए १स समस्तं । २ स चारित्रात्स्यात्प्र । ३ स सं, सत्रुता । ४ स सदोषण । ५स मुक्त, मुक्त्य सदोषा' । ६ स विपदे । सश्रयत्व ,वाश्रयंव।८स वर्त्य, वयम । ९ स पुरु for गुरु ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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