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________________ ३४ सुभाषितसंदोहः [120 : ६-१८120) कात्र श्रीः श्रोणियिम्बे सबबुदरपुरावस्ति खद्वारवाच्ये लक्ष्मीः का कामिनीनां कुचकलशयुगे मांसपिण्डस्वरूपे । का कान्तिनेत्रयुग्मे जलकलुषर्जुधि लेपरफ्ताविपूर्ण का शोभावर्तगतै निगदत पददो मोहिनस्ताः स्तुवन्ति ॥१८॥ 121) व लालाद्यचद्यं सफलरसंभृता स्वर्णकुम्भश्येन मांसग्रन्थी स्तनौ च प्रगलदुरुमला स्यर्वनाङ्गेन योनिः । निर्गकछद् दूषिकानं यदुपमितमहो पनपत्रेण नेत्र तबिध नात्र किंचियपंगतमतिर्जायते कामिलोकः ॥ १९॥ 122) यत्त्वमांसास्थिमजाक्षतजरसवसाशुक्रधातुप्रवृद्ध विष्ठामूत्रासंगथुप्रभृतिमलनवस्रोधमत्र त्रिदोषे । वर्चसमोपमाने कृमिकुलनिलये ऽस्यन्तबीभत्सरूपे रज्यनले वधूनां मजति गतमतिः वधगम कमिषम् ॥२०॥ भत्र कामिनीनां सवदुदरपुरौ खद्वारवाच्ये श्रोणिबिम्बे का श्रीः अस्ति। मांसपिण्डस्वरूपे कुचकलशयुगे का लक्ष्मीः।। बलकल्पषि नेत्रयुग्मे का कान्तिः। श्लेष्भरक्तादिपूर्णे भावर्तगते का शोभा अस्ति। अहो निगदत। यत् मोहिनः ताः दवन्ति ॥ १८॥ लालावा वक्त्रं सकलरसभृता (चन्द्रेण), मांसमन्थी स्तनौ स्वर्णकुम्भद्येन, प्रगलदुस्मला योनिः स्यन्दनान, निर्गच्छदृषिकास्त्रं (निर्गममन्ती दूषिका नेत्रयोर्मलः असाभ्यां कोणाभ्यां यस्य तत् । अथवा दूषिकार : असाणि-अणि च दूषिकासाणि । निर्गच्छन्ति दूषिकालाणि पस्मात् तत् ।) नेत्र पनपत्रेण उपमितम् । तस् भत्र , किंचित् चित्रं न । यत् कामिलोकः अपगतमतिः जायते ॥ १९॥ यत् समासास्थिमजाक्षवजरसवसाशुक्रधातुमा : विष्ठापासगभुप्रभृतिमलनघतोत्रं (वर्तते) वधूना त्रिदोषे वर्चसोपमाने कृमिकुलनिलये अत्यन्तबीभत्सकमे मत्र भरे इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य उनका दूरसे ही परिस्पाग करें ॥१७॥ यहाँ स्त्रियोंके उस श्रोणिबिम्ब (योनि) में, | जो कि निरन्तर मध्यसे अधिक रुधिर आदिको बहाता रहता है तथा जो इन्द्रियदार शन्दसे कहा जाता है, कौन-सी शोभा है; उनके मांसके पिण्डभूत दोनों स्तनरूप घटोंमें कौन-सी लक्ष्मी है; मलिन जल (अश्रु) से संयुक्त उनके दोनों नेत्रोंमें कौन-सी कान्ति है; तथा कफ व रुधिर आदिसे पूर्ण उनके आवर्तगर्तमें-मुखरूप गड्ढेमें-कौन-सी शोभा है; यह बतलाइये जिससे कि अज्ञानी जन उनके इन अवयवोंकी प्रशंसा करते हैं। [ अभिप्राय यह है कि स्त्रीके ये सब अवयव केवल घृणित रुधिर एवं मल-मूत्रादिके ही स्थान हैं, फिर भी कामी जन मोहके वशीभूत होकर उन्हें शोभायुक्त बतलाते हैं, यह आश्चर्य की बात है ] ॥१८॥ कामी जन जो स्त्रियोंके लार आदिसे दूषित मुखको पूर्ण चन्द्रमाकी, मांसकी गांठोंरूप दोनों स्तनोंको सुवर्णमय घटोंकी, अतिशय मलको निकालनेवाली योनिको रयके पहियेकी तथा कोनोंसे कीचड़को निकालनेवाले नेत्रको कमलपत्रकी उपमा देते हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। कारण यह कि कामान्ध जनोंकी भुद्धि नष्ट हो जाती है ।। १९ ।। जो त्रियोंका शरीर चमड़ा, मांस, हसी, मज्जा, रुधिर, रस, वसा (चर्बी) और वीर्य इन धातुओंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है; जो विष्ठा, मूत्र, रक्त और अश्रु आदि नौ प्रकारके मलको बहानेवाला है। जो वात, पित्त और कम इन तीन दोषोंसे सहित है, जो पुरीषालय (संडास) की उपमाको धारण करता है, जो कीड़ोंके समूहका घर है, तथा जो अतिशय घृणाको उत्पन्न करनेवाला है। ऐसे उस नियों के शरीरमें अनुराग १स पुरोनास्ति । २ स खटद्वार। ३ स कुचवालश । ४ स जलुपयुषि, कलुषिगलवाष्पकिदादि', 'वत्रमादि', दक्त्रले , नत्र । ५ स शोभा वक्त्र । ६ स दास्तर्वसि। ७ स सकलशशिभृता, 'शश। ८ स स्पेदि स्पंदनांगेन । ९ स निग्गच्छखिलान, निगच्छद् दूस्त्रिकाध । - Hom. तचित्र। 11 दपिगत १२ स 'सगर्छ। ११ स श्रोत्र । १४ सनिलयो। १५ स "स्वरूपे। १६ स रच्य', रिप्यन्नंगे।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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