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________________ 125 ६-२३) ६. स्त्री [गुण] दोषविषारपञ्चविंशतिः 123) छायावद्या न वन्ध्याचिरकचिचपला खलधारेव तीक्ष्णा धुद्धिर्वा लुब्धकस्य प्रतिहतकरुणा व्याधिवन्नित्यदुःस्रा । वक्रा वा सर्परीतिः कुनृपमतिरिवावद्यकश्यप्रचारा चित्रा वा शकचाएं भषचकितयुधः सेव्यते स्त्री कथं सा ॥२१॥ 124) संबातो ऽपीन्द्रजालं यदुत युवतयो मोहविस्वा मनुष्या नानाशाखलेषु दक्षानपि गुणकलितं दर्शयन्त्यात्मरूपम् । डाकासंग्यातनास्तं ततकथितमलैः प्रक्षरत्नोगतः सरुचारपुंज कुथितजठरभृच्छिद्रितं यदक्ष ॥२२॥ 125) या सर्वोकिएषक्त्रा हितजनभाषणों सद्गुणास्पर्शनीया पूर्वाधर्मात्प्रजाता सततमलभृती निन्धकृत्यप्रवृत्ती । दानस्नेहा शुनीव भ्रमणकृतरतिमानुकर्मप्रवीणा योषा सा साधुलोकैरवगतजननैईरतो चर्जनीया ॥२३॥ रज्यन् गतमतिः (नरः) श्वभ्रगर्भ (विष्वागतमध्ये) कृमित्व प्रजति ॥ २०॥ या छायावत् बन्ध्या न, अचिरकरिचपला, खड्गधारेव तीक्ष्णा, लुब्धकस्प प्रतिहतकरुणा बुद्धिर्षा, व्याधिवत् नित्यदुःखा, वक्रा सर्परीतिः बा, कुनुपगतिरिख अवधकृत्यप्रचारा, शकनापं वा चित्रा सा स्त्री भवच कितबुधैः कथं सेव्यते ॥२१॥ बदुत युवतयः संशातः इन्द्रजालम् अपि (यतस्ता.) अत्र नानाशास्त्रेय दक्षान् अपि मनुष्यान् मोहयित्वा शुक्रासुग्यातनाक्त ततकुषितमलैः सर्वः सोत्रगतः निहितं कुथितजठरभृत् (कुथितभूतपटं) यवत् उच्चारपुख प्रक्षरत् आत्मरूपं गुणकलितं दर्शयन्ति ॥ २२॥ या सर्वोष्टिवक्त्रा. द्वितजनभषणा (भषण बक्कन कक्करशब्दः). सदगणास्पर्शनीया, पूर्वाधर्मात्प्रजाता, सततमलमता, निन्धकृपप्रवृत्ता, शुनोव दानस्नेहा, भ्रमणकृतरतिः, चादुकर्मप्रवीणा सा योषा अवगतजननः साधुलोकैः दूरतः वर्जनीया ।। २३।। करनेवाला मूर्ख मनुष्य विष्ठाके मध्य में कृमि पर्यायको प्राप्त करता है ॥२०॥ जो स्त्री छायाके समान त्रिफल नहीं है अर्थात् साथमें रहनेवाली है, जो बिजलीके समान चंचल है, तलवारकी धारके समान तीक्ष्ण है, व्याधकी बुद्धिके समान दयासे रहित है, व्याधिके समान निरन्तर दुख देनेवाली है, सर्भके संचारके समान कुटिल है, कुत्सित राजाकी प्रवृत्ति के समान पापकार्यका प्रचार करनेवाली है, तपा जो इन्द्रधनुषके समान विचित्र रूपको धारण करती है, उस स्त्रीका संसारसे भयभीत हुए विद्वान् मनुष्य कैसे सेवन करते हैं । अर्थात् विद्वान् मनुष्योंको उस अहितकारक स्त्रीका परित्याग करना चाहिये ॥२१॥ अथवा युवति खियां नामसे इन्द्रजाल भी हैं। क्योंकि वे अनेक शाखोंमें प्रशण भी पुरुषोंको मोहित करके अपने उस रूपको गुणयुक्त दिखलाती हैं जो कि वीर्य, रुधिर एवं पीड़ासे संयुक्त तथा दुर्गन्धपूर्ण विपुल मलसे भरे हुए सब लोगों (थोत्रादि नौ द्वारों) के द्वारा मलसे परिपूर्ण छिद्युक्त वनके समान मलको बहानेवाले अपने स्वरूपको गुणयुक्त दिखलाया करती हैं। विशेषार्य-जिस प्रकार मलसे भरे हुए छिद्रयुक्त वस्त्रसे वह मल सदा चूता रहता है उसी प्रकार नियोंके नौ द्वारयुक्त शरीरसे भी निरन्तर रक्त, मल व मूत्र आदि बहता रहता है। फिर भी वे स्त्रियां विद्वान् मनुष्यों को भी मोहित करके अपने उस निन्ध शरीरको गुणयुक्त एवं सुन्दर प्रगट करती हैं। यह उनकी प्रवृत्ति इन्द्रजालके समान कपटसे परिपूर्ण है। अत एव उनको नामसे इन्द्रजाल भी कहा जा सकता है। कारण कि इन्द्रजाल भी इसी प्रकार दर्शकोंको मुग्ध करके कुछ का कुछ दिखलाया करता है ।। २२ ॥ जो श्री सबके द्वारा जूठे किये गये -- सबसे चुम्बितमुखसे सहित है, जो हितैषी जनोंके ऊपर कुत्तेके समान भोंकती है-उनसे रुष्ट रहती है, गुणवान् मनुष्य जिसका स्पर्श करना भी योग्य नहीं समझते हैं, जो पूर्व पापसे स्त्री हुई है, निरन्तर मलसे पूर्ण रहती १ सवद्यानबद्या २ स वश्या ३ स "बिझानि । म चपला। स प्रत्तहत। ६ करणा, 'करुणाव्या । स शुकोसृगपातनात, शुक्रामृग्यातनांत! ८ स गतै, गतः गर्नेः। ९स चारपुंजां। १. स कुथितभृबठरं, कुथिततप, कुथितभृतपर्ट । ११ स भुषणा । १२ स मलकृतां । १३ सप्रवीणा ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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