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818 : ३१-५७ ]
३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम
813 आहारपानताम्बूल गन्धमाल्यफलावयः
भुज्यन्ते' यरस' भोगश्च तन्मतः साधुसत्तमैः ॥ ५२ ॥ 814) वाहनाशन पल्यङ्कस्त्रोवस्त्राभरणावयः ।
भुज्यन्ते ऽनेकधा यस्मादुपभोगाय ते मताः ॥ ५३ ॥ 315) संतोषी' भाषितस्तेन वैराम्यमपि वशितम् ।
भोगोपभोगसंख्यानं व्रतं येन स्म घायंते ॥ ५४ ॥ 816) चतुषियों बराहारो दीयते संयतात्मनाम् ।
'शिक्षावतं तदाख्यातं चतुषं गृहमेधिनाम् ॥ ५५ ॥ 817) स्वयमेव गृहं साधुर्यो ऽत्राम्यतति संयतः ।
अर्थयेदिभिः प्रोक्तः सो ऽतिथिर्युनिपुङ्गवैः ॥ ५६ ॥ 818) श्रद्धामुत्सत्त्वविज्ञानतितिक्षाभवत्य "लुब्धताः । एते" गुणा हितोयुक्तैप्रियन्ते ऽतिथिपूजनेः ॥ ५७ ॥
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भोगसंख्यानं शिक्षाव्रतम् उच्यते ॥ ५१ ॥ यत् आहारपानताम्बूलगन्धमाल्यफलावयः भुज्यन्ते तत् साधुसलमैः सः भोगः मतः ।। ५२ ।। यस्मात् वानासनपत्यस्वीवस्त्राभरणादयः अनेकषा भुज्यन्ते ते उपभोगाय मठाः ॥ ५३ ॥ येन भोगोपभोगसंख्यानं वतं धार्यते स्म तेन संतोषः भाषितः । तेन वैराग्यम् अपि दर्शितम् ॥ ५४ ॥ संयतात्मनां चतुविधः वराहारः दीयते, तत् गृहमेधिन अतुर्थ शिक्षाव्रतम् आख्यातम् ।। ५५ ।। अत्र यः संयतः साधुः स्वयमेव गृहम् अम्पतति । अन्वर्थवेदिभिः मुनिपुङ्गवैः सः अतिथिः प्रोक्तः ॥ ५६ ॥ हितो दुक्तः अतिथिपूजने श्रद्धायुत्सत्त्वविज्ञानविविक्षा भक्त्यलुब्धताः एते
है- उनका प्रमाण करके शेषको छोड़ देता है - इसे भोगोपभोग संस्थान नामक शिक्षाव्रत कहा जाता है ॥५१॥ आहार, पान ( जलादि पेय वस्तु), ताम्बूल, सुगन्धित माला और फल आदि जो वस्तुएँ एक बार भोगी जाती हैं। उनको साधुओं में श्रेष्ठ गणधरादि भोग बतलाते हैं ॥ ५२ ॥ वाहन (हाथी-घोड़ा आदि), आसन, पलंग, स्त्री, वस्त्र और आभरण आदि चूँकि अनेक बार भोगे जाते हैं अतएव वे उपभोगके लिये माने गये हैं- उन्हें उपभोग कहा जाता है ॥ ५३ ॥ जिसने भोगोपभोगपरिमाणव्रतको धारण कर लिया है उसने अपने सन्तोषको सूचित कर दिया है तथा वैराग्यको भी दिखला दिया है। अभिप्राय यह है कि जो श्रावक भोगोपभोगपरिमाणव्रतका पालन करता है उसे अपूर्व सन्तोष प्राप्त हो जाता है और इसीलिये उसका बेराग्यभाव जागृत हो उठता है ॥ ५४ ॥ मुनिजनोंके लिये जो चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार दिया जाता है वह श्रावकोंका चौथा शिक्षाव्रत (अतिथि संविभाग ) कहा गया है ॥ ५५ ॥ जो संयम साधु स्वयं हो गृहपर आता है उसे अन्वर्थं संज्ञाके जानकार श्रेष्ठ मुनि अतिथि कहते हैं। तात्पर्य यह कि जो साधु किसी तिथिका विचार न करके किसी भी तिथिको आहारके निमित्त स्वयं ही श्रावकके वरपर जाता है वह अतिथि कहलाता है ॥ ५६ ॥ विज्ञान, आत्महितमें उद्यत श्रावक अतिथिपूजाके विषय में — उन्हें आहार आदिके देनेमें-- श्रद्धा, प्रमोद, सत्त्व, क्षमा, भक्ति और निर्लोभता इन सात गुणोंको धारण करते हैं ॥ ५७ ॥ विशेषार्थ -- प्रशंसनीय दाता वही होता है जिसमें कि उपर्युक्त सात गुण विद्यमान रहते हैं । उनका स्वरूप इस प्रकार है। श्रद्धा - साधुओंके लिये जो
१ स भुजं तत्स रस यत्सम ३स "नाशन । ४ स भुजं । ५ स भोगा ये मताः, "भोगा यते । ६ स ९ १० स यति for मुनि । ११ स "भय", सन्तो यो । ७ स चातुविधो । ८ स शिल्या शिष्या । "भक्त, भ° । १२ स लुब्धता । १३ स एतंर्गुणा ।
गु. सं. २८