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________________ २१६ सुभाषितसंदोहः [808 : ३१-४७ । 808) जत्वारि सन्ति पर्वाणि मासे तेषु विधीयते। उपवासः सवा घस्सत्प्रोषध'वतमीयते ॥७॥" 809) त्यक्तभोगोपभोगस्य सर्वारम्भविमोचिन: । चतुर्विषाशनत्याग उपचासो मतो मिनः ॥४८॥ 810) अभुक्त्य'नुपयासेकमुक्तयों मक्तितत्परैः। नियन्ते कर्मनाशाय मासे पचतुष्टये ॥४९॥ 8I1) कर्मेन्वनं सर्वज्ञानात् संचितं जम्मकानने। उपवासशिखी सवं तवभस्मीकुरुते क्षणात ।। ५०॥ 812) भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते पवितात्मना । भोगोपभोगसंख्यानं सच्छिक्षा'तमुच्यते ॥५१॥ तत्प्रोपपव्रतम् ईर्यते ।। ४७ ॥ जिनः त्यक्तभोगोपभोगस्य सर्वारम्भविमोचिनः चतुर्विधाशनत्यागः उपवासः मतः ॥ ४८ ॥ भक्तितत्परः मासे पवंचतुष्टये कर्मनाशाय अभुक्त्यनुपवास कभुक्तयः क्रियन्ते ।। ४९ ॥ जन्मकानने अज्ञानात् यत् कर्मन्धनं संचितम्, तत् सर्वम् उपवासशिखी क्षणात् भस्मीकुरुते ।। ५० ॥ हितात्मना यत् भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते, तत् भोगोपयिकमें श्रावकको मन, वचन और कायको शुद्धिपूर्वक वन्दनाको करना चाहिये । ४६ ॥ प्रत्येक मासमें चार पर्व ( दो अष्टमी व दो चतुर्दशी ) होते हैं। उनमें जो निरन्तर उपवास किया जाता है वह प्रोषघव्रत कहा जाता है ।। ४७ ॥ भोग और उपभोग वस्तुओंके परित्यागके साथ समस्त आरम्भको छोड़कर जो चार प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है वह जिन भगवान्को उपवास अमोष्ट है ।। ४८ ।। विशेषार्थ—जो वस्तु एक बार भोगनेमें आती है उसे भोग कहते हैं जैसे पान, लेपन व भोजन आदि । तथा जो वस्तु अनेक बार भोगनेमें बाती है उसे उपभोग कहा जाता है जैसे स्त्री, शय्या व वस्त्र आदि । उपवासके दिन श्रावकको इन भोग-उपभोग वस्तुओंका परित्याग करके समस्त बारम्भको भी छोड़ देना चाहिये । कारण यह कि उपवासका बर्ष केवल आहारका परित्याग नहीं है, किन्तु उसके साथ ही उपवासमें कषाय और विषयोंका परित्याग भी अनिवार्य समझना चाहिये । अन्यथा फिर उपवास और लंघनमें कोई विशेष भेद ही नहीं रहेग ॥ १८ ॥ भक्तिमें तत्पर श्रावक प्रत्येक मासके चारों पोंमें कर्मनाशके लिये अभुक्ति ( उपवास ), अनुपवास अपवा एकभुक्ति ( एकाशन ) को किया करते हैं ।। ४९॥ विशेषार्थ---जो श्रावक शक्तिके अनुसार उपबास, अनुपवास और एकाशन ( एक स्थान ) इनमेंसे किसी भी एकको करता है वह प्रोषधकारी कहा जाता है। इनमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चार प्रकारके आहारोंके परित्यागका नाम उपवास है । अनुपवासका अर्थ है ईषत् { थोड़ा ) उपवास । तात्पर्य यह कि बलको छोड़कर शेष सब प्रकारके आहारके परित्याग कर देनेको अनुपवास माना जाता है। एक स्थानमें बैठकर एक ही बार जो भोजन किया जाता है उसे एकभुक्ति या एकासन समझना चाहिये । ये सब यथायोग्य कर्म- निराके कारण हैं ॥ ४२ ॥ संसाररूप वनमें स्थित रहकर प्राणोने अज्ञानतासे जिस फर्मरूप इन्धनका संचय किया है उस सबको उपवासरूप अग्नि क्षण भरमें ही भस्म कर डालती है ।। ५० ॥ आत्महितेषी श्रावक जो भोग और उपभोग रूप वस्तुओंकी संख्या कर लेता १स प्रोषप'। २ स °मीयते । ३ स om. 47। ४ स तक्त , त्यक्ता । ५ स भोगे ऽस्य । ६ स अभुक्ता। ७ स भक्तयो मुक्ति । ८ स यदा । १ स जन्म कानने। .१० स तात्मनः । ११ स तरिक्ष्या, तछिया, तच्छित्या ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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