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३१. श्रावकधर्मकथनसप्तवंशोत्तरं शतम् 804) दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिर्या विधीयते'।
जिनेवधरसमाख्यातं त्रिविघं तवगुणवतम् ॥ ४३ ॥ 805) नमस्कारादिकं जेयं शरणोत्तममङ्गलम् ।
संध्या'नत्रितये शश्वदेकाप्रक्तचेतसा ॥४॥ 806} सर्वारम्भ परित्यज्य कृत्वा द्रव्याविशोषनम् ।
आवश्यक विधातन्यं व्रतवपर्यमुत्तमः॥४५॥ 807) व्यासनदावशावर्ता' चतुर्मस्तकसंततिः। ___त्रिविशुद्धचा विषातव्या वन्दना स्वहितोगतैः॥६॥
समाख्यातम् ।। ४३ ।। एकाग्रकृतचेतसा शश्वत् संध्यानपितये नमस्कारादिकं शरणोत्तममङ्गलं ज्ञेयम् ।। ४४॥ उतमः व्रतशुष्वर्ष सर्वारम्भं परित्यज्य द्रव्यादिशोधनं कृत्वा आवश्यक विधातम्यम् ॥ ४५ ।। स्वहितोचतः म्यासनद्वादशावर्ता चतुर्मस्तकसनतिः बन्दना विविशुध्द्या विषातव्या ॥ ४६ ॥ मासे चत्वारि पर्वाणि सन्ति, तेषु यः सदा उपवासः विधीयते
वस्तुयें बहुत दोषोंसे सहित तथा अनर्थको करनेवाली हैं उन सबका भी बुद्धिमान् मनुष्योंको परित्याग करना चाहिये ॥ ४२ ॥ दिशा, देश और और अनर्थदण्डसे जो व्रत किया जाता है जिनेन्द्रके द्वारा वह तीन प्रकारका ( दिग्नत, देशव्रत व अनर्थदण्डवत ) गुणव्रत कहा गया है || ४३ ।। श्रावकको एकाग्रचित होकर निरन्तर तीनों सन्ध्याओंमें नमस्कारको आदि लेकर शरण, उत्तम और मंगलको जानना चाहिये ।। ४४ ॥ विशेषार्थ-इसका अभिप्राय यह है कि सामायिक करते समय श्रावकको सर्वप्रथम पंचनमस्कार-मंत्रका उच्चारण करते हुए पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करना चाहिये । तत्पश्चात् "चत्तारि मगलं-अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगल साहू मंगलं | केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा–अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, फेवलिपग्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवजामि अरिहते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि ।" इस पाठको पढ़ें और अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवलीकथित धर्मका मंगल, लोकोत्तम व शरण स्वरूपसे चिन्तन करे ।। ४४ ॥ उत्तम श्रावकोंको व्रतशुद्धिके निमित्त | समस्त आरम्भको छोड़ करके और द्रव्य क्षेत्रादिको शुद्धि करके सामायिक आवश्यकको करना चाहिये ।। ४५ ।। सामायिक शिक्षाप्रतके धारक श्रावकोंको अपने आत्महितमें उद्यत होते हुए पद्मासन व खगासन इन दो आसनों से किसी एक आसनसे बारह बावर्त और चार शिरोनतियोंसे सहित मन, वचन व कायको शुद्धिपूर्वक वन्दनाको करना चाहिये ।। ४६ ॥ विशेषार्थ-सामायिक पद्मासन और खगासन इन दो आसनोंमेंसे किसी भी एक आसनसे की जाती है । इसमें वन्दना कमको करते हुए श्रावकको बारह आवत्तं और चार शिरोनतियोंको करना चाहिये । आवर्तका अर्थ है मन, वचन और कायका नियमन । ये पंचनमस्कार मंत्रके आदिमें और अन्तमें तीन तीन तथा चतुर्विशतिस्तवके बादि व अन्तमें तीन तीन इस प्रकार बारह किये जाते हैं। दोनों हायोंको जोड़कर शिरके नमानेका नाम शिरोनति है। यह पंचनमस्कार मंत्रके आदि और अन्तमें एक एक । तथा चतुर्विंशतिस्तवके आदि और अन्त में एक एक इस प्रकारसे चार बार की जाती है। इस विधिसे सामा.
१स विषोयते । २स संध्यानां, सदयानं। ३सचेतसः । ४ स आवश्यका, आवशक्यं । ५ स सिन्ध,°विष्य, इध। ६ स °वर्ताश्चतु° ।