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________________ २१४ [ 800 : ३१-३९ सुभाषितसदोहः 800) पप्रधानर्थदण्डस्य परं पापोपकारिणः। क्रियते यः परित्यागस्तृतीयं तद्गुणवतम् ॥ ३९ ॥ a01) दुष्ट तिरपाया- पापकर्मोपदेशनम् । प्रमादः शस्त्रदानं च पज्ञानी' भवन्स्यमी ॥ ४० ॥ WO2, शारिकाशिनिमार्जारताम्रचून्शुकादयः। बनकारिणस्त्याज्या बहवोवा मनीषिभिः ॥ ४१ ।। 803) नोलोमदनलाक्षायःप्रभूतानिनिवाबयः । बनर्यकारिणस्त्याज्या बहवोवा मनीषिभिः ॥ २॥ धृतिवल्लरी वर्षिता ॥ ३८।। पापोपकारिणः पञ्चषा बनर्षदस्य यः परित्यागः क्रियते तत् तृतीयं परं गुणवतम् ॥ ३९ ॥ दुष्टश्रुतिः, अपध्यान, पापकर्मोपदेशनं, प्रमादः, शस्त्रदानं च अमी पञ्च बनाः भवन्ति ॥ ४० ॥ मनीषिभिः बहुदोषाः अनषकारिणः शारिकाशिलिमारिताम्रचूडशकादयः त्याग्याः ॥ ४॥ मनीषिभिः बहुदोषा: अनर्थकारिणः नीलीमदनलाक्षायःप्रमुताग्निविषादयः त्याज्याः ॥ ४२ ॥ विग्देशानदण्डेम्प. या विरतिः विधीयते तत् त्रिविघं गुणव्रतं जिनेश्वर काटकर धैर्य ( सन्तोष ) रूप लताको वृद्धिंगत किया है। अभिप्राय यह कि अखण्डित देशवतके धारण करनेसे मनुष्यको तृष्णा नष्ट होती है और उसके स्थानमें सन्तोषको वृद्धि होती है ॥ ३८ ॥ पापको बढ़ानेवाले पांच प्रकारके अनर्थ दण्डका जो परित्याग किया जाता है, यह उत्कृष्ट अनर्थदण्डवत नामका तीसरा गुणवत्त है ॥ ३९ ॥ वे पांच अनयंदण्ड ये हैं-दुःश्रुति, अपध्यान, पापोपदेश, प्रमाद और शस्त्रदान !|४०॥ विशेषार्थजिन कार्योसे बिना किसी प्रकारके प्रयोजनके ही प्राणियोंको कष्ट पहुँचाता है वे सब अनर्थदण्ड कहे जाते हैं। वे स्थूल रूपसे पांच हैं-पापोपदेश, हिंसादान, दुःश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या । जिस वाक्यको सुनकर प्राणियोंकी पापजनक हिंसादि कार्योंमें प्रवृत्ति हो सकती है उस सबको पापोपदेश कहा जाता है जैसे किसी व्याघके लिये यह निर्देश करना कि मृग जलाशयके पास स्थित हैं 1 हिंसाजनक विष एवं शस्त्र आदिका दूसरोंके लिये प्रदान करना, यह हिंसादान कहलाता है। जिन उपन्यास एवं कथाओं आदिको सुनकर प्राणोके हृदयमें कामादि विकार उत्पन्न हो सकते हैं उनके सुननेका नाम दुःश्रुति है। अपध्यानका अर्थ कुत्सित ध्यान है-जैसे राग या द्वेषके वश होकर अन्यको स्त्री आदिके बध-बन्धन आदिका विचार करना । वह दो प्रकारका है-आत्तं और रोद्र । अनिष्ट पदापोंका संयोग और इष्ट पदार्थोंका वियोग होनेपर जो उसके लिये चिन्तन किया जाता है वह मार्सध्यान कहलाता है। हिंसा, असत्य, चोरी एवं विषय संरक्षण आदिके चिंतनको रौद्रध्यान कहा जाता है। व्यर्यमें पृथिवीका खोदना, वायुका व्याघात करना, अग्निका बुझाना, पानीको फैलाना और वनस्पतिका छेदन करना; इत्यादि कार्य प्रमादचर्याके अन्तर्गत हैं। ये पांचों हो अनर्थदण्ड ऐसे हैं कि जिनसे प्राणियोंको व्यर्थमें कष्ट पहुंचता है। अतएव देशवती श्रावक इन पांचोंका परित्याग करके अनर्थदण्डवत्तका परिपालन करता है ॥ ४० ॥ शारिका { मैना ), मयूर, बिलाव, मुर्गा और तोता आदि जो पश-पक्षी अनेक दोषोंसे सहित होकर अनर्थको उत्पन्न करनेवाले हैं उन सबका भी बुद्धिमान् पुरुषोंको परित्याग करना चाहिये ॥४१॥ नौलो (नील) मैन, लाख, लोहसे निर्मित अस्त्र-शस्त्रादि, अग्नि और विष आदि जो १स पंचान्यो । २ सप्रगा।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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