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________________ 199 : ३१-३८ ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम् २१३ 794) सस्थावरजीवानां रक्षातः' परतस्ततः । महाव्रतमित्येवं श्रावकस्यापि तस्वतः ।। ३३ ।। 795) चेतो निवारितं येन घावमानमितस्ततः । कि न लब्धं सुखं तेन संतोषामृतलाभतः ॥ ३ ॥ 796) यति विज्ञानतः कृत्वा वेशावधिमनिशम् । नोल्लहध्यते पुनः पुंसां द्वितीयं तवगुणवतम् ॥ ३९ ॥ 797) महायतत्वमत्रापि वाच्यं तत्वविधानतः । परतो लोभनिर्मुक्तो लाभे सस्यपि तत्त्वतः ॥ ३ ॥ 798) शक्यते गवितुं केन सत्यं तस्य महात्मनः। तणवत्यज्यते येन लग्यो ऽप्यों व्रताविना ।। ३७ ॥ 799) लूना तुष्णालता तेन वर्षिता धृतिवल्लरी। देशतो विरतियन कुता नित्यमण्डिता ।। ३८ ॥ महाद्रतत्वम् ॥ ३३ ॥ येन इतस्ततः पावमानं चेतः निवारितं तेन संतोषामृतलाभतः किं सुखं न लम्भम् ॥ ३४ ॥ यदि विज्ञानतः अहर्निशं देशावधि करवा पुनः न उल्लङ्गम्यते तत् पुंसां द्वितीयं गुणवतम् ॥ ३५ ॥ अत्रापि तत्त्व विधानतः महाव्रतत्वं वाच्यम् । परतः वत्वतः लाभे सत्यपि लोभनिर्मुक्तः भवति ॥३६॥ येन व्रताधिना लयः अपि अर्थः तृणवत् त्यज्यते, | तस्य महात्मनः सत्यं गदितुं केन शक्यते ॥ ३७॥ येन देशतः विरतिः निरयम् अस्मण्डिता कता, तेन तृष्णालता सूना, है। इस प्रकारसे दिग्नतोके मर्यादाके बाहर अहिंसादि व्रतोंका पूर्णतया पालन होता है ॥ ३२ ॥ चूंकि की गई 'उस मर्यादाके बाहिर त्रस और स्थावर जीवोंका पूर्णरूपसे संरक्षण होता है अतएव इस प्रकारसे श्रावक भी वास्तवमें महाव्रती जैसा हो जाता है ।। ३३ ।। जिस श्रावकने इधर उधर दौड़नेवाले पित्तका निवारण कर लिया है उसने सन्तोषरूप अमृतको प्राप्त करके कौन-से सुखको नहीं प्राप्त कर लिया है ? अर्थात् सन्तोसको प्राप्ति = हो जानेसे उसे सब कुछ सुख प्राप्त हो मया है, ऐसा समझना चाहिये । कारण कि सुख और दुखका स्वरूप वास्तवमें सन्तोष और असन्तोष ही है ।। ३४ ॥ यदि विज्ञानसे-प्राम, नदी एवं पर्वत आदिरूप चिह्नोंके भवपारणसे-निरन्तर देशकी मर्यादा करके उसका अतिक्रमण नहीं किया जाता है तो पुरुषोंके देशवत नामका वह द्वितोय गुणवत होता है ॥ ३५ ॥ विशेषार्थ-दिग्बतमेंकी गई मर्यादाके भीतर भी कुछ संकोच करके नियमित समयके लिये किसी ग्राम, नगर एवं पर्वत आदिकी सोमा करके तब तक उसके आगे नहीं जाना; इसे देशवत कहते हैं। दिग्वतमें जो दिशाओंमें जाने-आनेकी मर्यादाको जातो है वह जन्म पर्यन्तके लिये की जाती है और उसमें मर्यादित क्षेत्र भी विशाल होता है। परन्तु देशवत कुछ नियमित (घड़ी, दिन, पक्ष व मास आदि ) समयके लिये लिया जाता है तथा मर्यादा भी उसमें दिग्वतको सीमाके भीतर ही ली जाती है ॥ ३५ ॥ इस देशवतमें भी वास्तवमें अणुवतीको महाबतो जैसा ही कहना चाहिये। कारण यह कि यहाँ भी लाभके होने. पर भी श्रावक मर्यादाके बाहर यर्थार्थमें लोभसे रहित होता है। अतएव वहाँ अहिंसादिवतोंका उसके पूर्णतया पालन होता है ॥ ३६ ।। व्रतको इच्छा करनेवाले जिस महात्माने प्राप्त भो पदार्थको तृणके समान तुच्छ समझ करके छोड़ दिया है उसका दृढ़ताको प्रशंसा करनेके लिये भला कौन समर्थ है ? कोई नहीं-वह अतिशय स्तुति करनेके योग्य है ।। ३७ ।। जिसने निरन्तर अखण्डित देशव्रतका पालन किया है उसने तृष्णारूप लताको १स रक्षते । २ स bu. verse 34 th ) ३ स तुणवम्पज्यते । ४ स लुता । ५ स °लतास्तेन ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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